Friday, November 16, 2007

परीक्षा की घड़ी (लेख)

आह!!!! जब भी ये हवायें बेचैन होकर ठण्ड के आगमन का संदेश देती हैंजब भी पेड़ों के पत्ते पीले पड़ने लगते हैंधूप निखरी होती है और आसमान का नीलापन आँखों में नहीं चुभतासुबह अलसाने लगती है और शाम जल्द ही शरमाकर रात की आगोश में चली जाती हैसड़क पर कुछ लोग अपने पहनावे से जोर देकर कहते हैं कि जल्द ही ठिठुरना होगायूनिवर्सिटी की कुछ कन्यायें ज्यादा वस्त्रों में आकर भारतीयता का आभास कराती हैंकैंटीन में हर समय चाय बनने लगती है और कुछ लोग लगातार सिगरेट फूँकने लगते हैंयहाँ हॉस्टल में लोग नोट्स जेरॉक्स करवाने लगते हैंइस भागमभाग की बेला में यह अहसास होता है कि परीक्षा की घड़ी गयी है

वैसे तो कई बरसों से हमारा सामना होता रहा हैकोचिंग के दिनों में तो हम हमेशा मिला करते थेयहाँ भी क्लास टेस्ट का नियम है तो लगातार मिलना होता हैऐसे मिलने से प्रेम बढ़ना चाहिये था और परस्पर सौहार्द की भावना भी आनी थीपरंतु भगवान ने सबको एक सा नहीं बनाया है,हम तो एक दूसरे के प्रति निष्क्रिय होते गये और उसका बहुत बुरा परिणाम निकलाइस कारण हमें फिर से भी मिलना पड़ाअक्सर हम एक दूसरे के प्रति रूखे ही रहे और केवल औपचारिकता निभाते रहेइस बीच ऐसी भी परिस्थिति आयी कि मुझे मजबूरन अपना प्रेम बढाना पड़ाऔर वही स्थिति फिर से लौट चुकी हैपता नहीं चलता पर लगता है कि हमारा यह संबंध आजन्म तो है ही,आमरण भी रहेगा क्या?जिस व्यवस्था का अंग बन चुका हूँ उसमें तो इसी तरह पार पाना है

कभी-कभी ऐसी भी परिस्थिति आयी है कि हम कुछ दोस्त मिलकर परीक्षा जैसी चीज के ईजाद करनेवालों को कोसते थेपर कहाँ तक हम अपने अपराधी चुनें?हर युग में अलग-अलग किस्म की परीक्षा होती रही हैकभी अप्सरायें तपस्वी की परीक्षा लेतीं थी तो कभी भगवान ही आकर वर देने के पहले परीक्षा ले लेते थेयक्ष ने तो युधिष्ठिर से पानी पीने के लिये परीक्षा ले लीअब तो कुछ जगहों पर अलग हवा बहने लगी है पर अभी भी जहाँ हवा पुरानी खिड़कियों से ही आती है, वहाँ बहुत सारी परीक्षा होती हैशादी के मौके पर लड़कियों की परीक्षा सबसे कठिन होती है,मुझे तो सोचने पर ही डर लगता हैलड़के भी परखे जाते है पर कटघरे में लाकर कम हीबाद में गीत गाया जाता है--
चलनी के चालल दूल्हा ,सूप के फटकल हो........
अब तो दूल्हा शब्द ही दुर्लभ का अपभ्रंश है,मतलब की यह परीक्षा भी बहुत पुरानी है

यह जो शब्द है यह कहीं भी पीछा नहीं छोड़ता,चाहे आप मस्तानों की टोली में जायें या विचारकों के पासकहीं आपको यह दिखाकर उत्तीर्ण होना होता है कि आप कितने कमीने हैं और कहीं अपनी बुद्धिजीवी सोच का प्रदर्शन करकेमुझे तो कुछ झुंडों में इसलिये जगह नहीं मिली क्योंकि मैं सिगरेट और गुटखा का साथ नहीं निभा पायाएक बार तो गाँव के रास्ते पर मैं एक अजनबी से बात करने के अयोग्य ठहरा दिया गया क्योंकि मैंने उसकी दी हुई खैनी नहीं खायीअब दूसरे टोली में चलिये जहाँ यह जिंदगी ही परीक्षा हैतभी तो बच्चन साहब कहते हैं-
"युग के युवा ,मत देख दायें और बायें"
मतलब परीक्षा तो है ही पर निडर होकर आगे बढ़ जाओअब हमें कुछ आत्मज्ञान हो रहा हैकल से प्रायोगिक परीक्षा शुरु है और सप्ताह भर में लिखित भीअब तो इंटरनेट और ब्लॉग सब से जुदा होने का वक्त गया

तो आपको भी विदा और नये साल की बधाई नये साल में(समझदार को इशारा काफी)।

Sunday, November 11, 2007

तेरी याद में (संस्मरण)

नमन नेतरहाट भूमि

सौम्य,मधुर दिवा निमंत्रण
प्राची-पट पर अरुण चित्रण
गोद में उलझी सी कोयल
प्रात समीर का शांत नर्तन

(कोयल नदी का नाम है)
वृष्टि-व्योम में डूबा मानस
जलधि-हिलोर की आती आहट
सोखता आनंद हृदय-पट
सुधा का रेला है घट-घट

मूर्त होता सारा चिंतन
आकुल धरा पर छाता यौवन
पगडंडियों की विषाद रेखा
इठला उठी आने पर सावन

तम गगन पर हँसते तारक
साक्षी बने हैं मौन दर्शक
किस भाव को ढ़ोते रहे हैं
कितने युगों से शांत वाहक


वहाँ जाने के पहले बचपन बिहार के मैदानी भाग में ही गुजरा था।बोकारो और राँची में भी जिन पठारी भौगोलिक क्षेत्र से गुजरा था,वहाँ के नैसर्गिक वातावरण पर विकास की छाया पहुँच चुकी थी।पर राँची से नेतरहाट पहुँचने के क्रम में ही उन नये भू-खंडों को देखा जो हमेशा के लिए मुझपर एक छाप छोड़ गये।१५० किलोमीटर और ६ घंटों की वह यात्रा ही अपनेआप में एक रोचक संस्मरण है,जिसका रोमांच मेरे सभी साथी अभी भी महसूस करते होंगे।फिर तो कहानियाँ ही कहानियाँ बनने लगी।वहाँ पहुँचने पर पहले सप्ताह ही हम दो साल और पहले महीने में पाँच साल बड़े हो गये।हाँ, पर मेरे कुछ मित्र अभी भी बच्चे हुये हैं(माफ़ करना यार,और किसकी टाँग खींचूँगा?)।



पहले दो चार दिन में ही हमने प्रकृति की अनुपम सुषमा को उसके निष्कपट वेश में देखा।सूर्योदय से सूर्यास्त तक,पगडंडियों से पठार की ढलान तक,वहाँ के मूल आदिवासी लोगों से हमारे बीच के लोग तक;सब दर्शनीय।मुझे तो लगा कि मैं इन पगडंडियों में उलझकर रह जाऊँगा,रास्ते याद ही नहीं रहते थे,कब दिशा परिवर्तन हो जाता पता ही नहीं चलता था।परंतु महीनेभर में ही मैने इसे आत्मसात कर लिया,यह नेतरहाट श्री का आशीर्वाद था।नेतरहाट का हर छात्र और हमारे विद्वान श्रीमान जी(अध्यापकगण) नेतरहाट श्री को वहाँ मौजूद मानते थे-यह मैंने देखा था,मानते हैं-यह मेरा विश्वास है।
सर्वांगीण विकास हेतु वहाँ की दिनचर्या हमें काफी कुछ सिखलाती गयी।अभी यह सोचकर खुद मुझे आश्चर्य होता है कि ९ वर्ष पहले मैं इस तरह की सफाई करता था।अपने आश्रम(hostel) के सफाईकर्ता ,सज़ावटकर्ता सब हम ही थे।खाना परोसने के काम से लेकर थाली धोने का काम हमारा ही था।हर कनीय(junior) और वरीय(senior) छात्र ने पूरे आश्रम की थाली धोयी,इस कारण से कभी अभिमान नहीं आया।
पता नहीं था कि उन सुखद क्षणों को याद करते-करते स्मृतियों की बाढ़ आ जायेगी।पुस्तकालय से लेकर पीटी ग्राउण्ड और सारे खेल मैदानों की याद आ जायेगी।स्काउट,N.C.C. और क्रासकन्टी दौड़ से जुड़ी यादें,जब ये सब करना मजबूरी होती थी और मेरे जैसे खेल से दूर भागनेवालों के लिये परीक्षा की घड़ी होती थी।अंतिम वर्ष(२००१) में १० किलोमीटर ४० मिनट के अंदर दौड़ना था,वो भी पठारों के ऊँचे-नीचे और ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुये।महीने भर से हमारे जैसे काहिल भी practice कर रहे थे,क्योंकि रास्तों का चक्कर लगाकर आना मजबूरी थी।दौड़ शुरु होते ही हम सबसे तेज निकले और oval ground से निकलते ही हमारी दौड़ समाप्त हो गयी।फिर तो हम पैदल ही चक्कर काटकर आये।अभी भी और कुछ नहीं तो चलने की प्रैक्टिस तो है ही।
जितना भी खाली समय गुजरा वो या तो हिन्दी साहित्य पढ़ने में गया या फिर जंगलों के सैर में।यद्यपि जाने की मनाही होती थी फिर भी हम चोरी छुपे निकल लेते थे।दो चार किस्से तो झरनों से भी जुड़े हुये हैं जब परिस्थितियाँ काफ़ी नाजुक हो गयीं थी,सब हमारे adventure करने के चक्कर में।एक fall था जिसे हम ninety degree कहते थे,उसका ढ़लान बिल्कुल खड़ा था।अतिम वर्ष का समय था (सन २००१) और मुझे लगता था कि अब कब इन झरनों में लौट पाऊँगा।मैनें अनित जो मेरे ही वर्ष का है और कपिल जो मेरे बाद के वर्ष का है,इन दोनों के साथ निकल पड़ा।अब वे कोई बने बनाये रास्तों वाले झरने तो थे नहीं,हम उछलते कूदते ढलान उतरते गये।कभी कभी तो इतनी ज्यादा ढाल हो जाती थी कि बिना कुछ पकड़े उतरा नहीं जा सकता था। भीगी हुई चिकनी मिट्टी के घास को ही मुट्ठियों में भींचकर हम अपनी बढ़्ती गति को काबू में कर उतर रहे थे।फिर उजली चट्टानों का दौर शुरु हुआ और हम पानी में ही चट्टानों पर उछलते हुये चलते रहे।बीच -बीच में एक-डेढ़ floor की ऊँचाई के झरने बन जाते और हमें धीरे-धीरे सावधानी से चट्टान पकड़कर उतरना पड़ता।यह भी अपनेआप में मजा था।तीन सालों में कम से कम १० बार तो आ चुका था पर हर समय काफ़ी लड़के रहते थे।झरनों का गूँजता कलकल स्वर कभी ध्यान देने पर बहुत डरावना लगता।साथ ही जंगल में अक्सर भालू देखे जाते थे।छुट्टियों में तो हमारे विद्यालय तक आ जाते थे।फिर भी हम कुछ मस्त टाइप के जीव थे और इस बारे में ज्यादा नहीं सोच रहे थे।२० मिनट तक कूदने-फाँदने के बाद आखिर बड़ा fall आ गया और हमें अब पार्श्व(side) से नीचे उतरना था।उतरकर हमने नहाया, नहाया क्या मस्ती की।झरने का शोर और भी डरावना हो गया था।फिर हमने लौटने की सोची।अचानक मैंने सोचा कि क्यों ना सीधी झरने की खड़ी चट्टानों से ही ऊपर चला जाए।मेरे इस बेवकूफ़ी भरे प्रस्ताव का दोनों ने समर्थन किया।पर उनमें और मुझमें यहाँ बहुत अंतर था।अनित और कपिल ६ फ़ीट के थे और मैं साढ़े पाँच में भी एक इंच कम।दोनों ऊपर चढ़ने लगे और सबसे पीछे मैं।काफ़ी मशक्कत हुई,ना साँप-बिच्छू की सोच रहे थे और ना ही दूसरे जानवरों की।सबसे ऊपर एक २ इंच व्यास(diameter) का एक तना निकला हुआ था,जिसे पकड़कर आखिरी कदम बढ़ाना था।मेरे आगे दोनों ऊपर पहुँच चुके थे।
मैनें हाथ बढ़ाया तो वह मेरी पहुँच से दूर था।मैंने इधर -उधर देखा पर इसके अलावा कोई भी दूसरा रास्ता नज़र नहीं आया,१-२ मिनट उसी तरह अटका रहा।अब ऊपर से दोनों आवाज देने लगे।खड़ी ढ़लान होने के कारण नीचे झाँक नहीं रहे थे।अब मुझे झरने की गूँजती आवाज डराने लगी।मैंने थोड़ा उचककर तने को पकड़ने की कोशिश की तो पैर के नीचे से एक छोटा पत्थर नीचे जा गिरा,मैंने उसे गिरते हुये देखा।अबतक मैं ऊपर ही देख रहा था,नीचे झाँकते ही गहराई डर बनकर दिल में बैठ गयी।दोनों आवाज दिये जा रहे थे,मैने आवाज को सामान्य बनाकर ही कहा कि बिलकुल सही हूँ।नीचे उतरना ऐसे में और भी मुश्किल होता है।मैंने आवेग में उछलकर उस डाली को पकड़ा और ऊपर आ गया।कुछ देर बैठा रहा। सोचता हूँ तो सिहरन होती है।झरने से लौटना बहुत बोरिंग काम है जो करना पड़ता था।चढ़्ते-चढ़ते हम हाँफ जाते थे।
याद कर रहा हूँ तो कितनी ही कहानियाँ सामने आ रही हैं,कहीं कहीं से आ जा रहीं हैं।आज ११ नवंबर है,१५ नवंबर को विद्यालय दिवस है।अभी सारी तैयारियाँ चल रही होंगी,एक स्तरीय नाटक महीने भर में सज चुका होगा,पीटी,प्रदर्शनी,एन सी सी सब कुछ का अभ्यास जोर-शोर से हो रहा होगा।हर हाटियन की तरह मेरे दिल में भी वो समय और वह भूमि हमेशा बसी रहेगी।

Saturday, November 3, 2007

उस रुख में क्या रोशन सा है(नज़्म)

शिशिर की ठहरी हवा,ठण्डी हवा
ये हवा बसंती लगती है
तेरे रूप में है तहरीर फँसी
शायर की मस्ती लगती है

ये हवा नहीं झोंके वाली
फिर भी सहला तो जाती है
उस रुख में क्या रोशन सा है
दुनिया जगमग हो जाती है

आवाज़ भी ठहरी है सारी
हँस दो तो सन्नाटे भागे
या एक लहर आँखों में ला
खोये सपनों से हम जागें

पिघली पिघली है धूप यहाँ
यह कौन नूर लुटाता है
शोर भरे सर और दिल को
सर्द सा करता जाता है

Friday, November 2, 2007

अब तो जाने दे(नज़्म)

बेचैन सबा संग फिरता था
कहता था बुरा क्या होगा
तेरे कूचा-ए-कफ़स में अटके
ऐ सितमगर अब तो जाने दे

तेरी सूरत देखकर क्या जाने
हैं खार बिछे तेरे दर पर
सहलाया जो ज़ख्मे-पां को
कहा कि अब तो जाने दे

हाल बयां क्या हो तुझपर
जब भी थोड़ी हिम्मत बाँधी
आँखों ने कुछ कहा दिल से
सोचा कि अब तो जाने दे

होती है खता जब हमसे
रंग बदल वो लेते हैं
पर जब उनकी बारी आयी
फरमाया कि अब तो जाने दे

कोई अदा जरा उनकी देखे
जिंदा थे तो कुछ करम नहीं
अब आकर मेरी कब्र पर
लिख दिया कि अब तो जाने दे

Wednesday, October 31, 2007

जहाँ दिल को हो सुकूं..वो ठिकाना ना मिला (नज़्म)

जहाँ दिल को हो सुकूं..वो ठिकाना ना मिला
यादों से मुझे कभी...छुटकारा ना मिला
अब्र बरसा था अभी आँगन में मेरे
आतिश से भरे दिल को...सहारा ना मिला

हमारे रुबरू होकर कभी गया था वो
ता हश्र फिर कभी वो..शरारा ना मिला
क्या शिकवा करें तुझसे ऐ जिंदगी,पर
ऐसा कोई जिंदगी का मारा ना मिला

दिल जलना और खूं होना ही शोब नहीं
कुछ सवाल हैं जिनका..इशारा ना मिला
अज़ल ले जायेगी नयी डगर..तो देखते हैं
पर क्या पता गर वहाँ भी..गुजारा ना मिला

Tuesday, October 30, 2007

हँस लो,रो लो,कुछ जी को बहला लो


हँस लो,रो लो,कुछ जी को बहला लो
जब मुख्तसर है शब...तो दिल को जला लो
क़यामत क्या खौफ़ लाएगी अब हस्ती में
सर‌अंजाम है मालूम...कुछ मुस्कुरा लो

यार होता है हमनज़र तो दिल खो जाता है
अब वो गया है आखिर...कुछ दर्द उठा लो
कोई आकर गया है इस वीराने में अभी
निशां गर ना मिले...तो आहट ही चुरा लो

तौबा है मुझको मय से मयकशी से नहीं
चाहो तो सरे-बज़्म...बुलाकर पिला लो
ये मेरी ज़िंदगी भी अजीब सी दास्तां है
कोई हासिल नहीं है फिर भी...हर रंग को पा लो

कभी हँसते हमें भी जहाँ ने देखा था
आकर मेरी पुरानी...तस्वीर का बयां लो
कुछ बात सुन लो मेरी, कुछ मुझे भी सुना लो
कुछ किस्सा आज कह दो...कुछ मेरी भी दुआ लो

Monday, October 29, 2007

कुंठा में पनपी हुई एक कविता--


मेज़ पर बिखरे हुए कागज़
कागज़ों से खेल रहा हूँ
धीरे-धीरे,हल्के हाथों से
इन्हें ऊँगलियों से फड़फडा़कर
जैसे नोटों का बंडल हो
सहला रहा हूँ
जैसे कोई पुराना दर्द ना जी उठे...

...चोट खायी ये शाम
कमरे में उतरता रोता अँधेरा
सब धुँधला है
सामने का वक़्त नहीं दिखता
इस धुन्ध को उड़ाना चाहता हूँ
सिगरेट के धुएँ में...

...दस्तक-कुछ पुरानी यादों का
और एक हल्की मुस्कुराहट
बेहूदा हो गये होठ
अब खुद पर ही हँस रहा हूँ
कोई बेपर परिंदा जैसे
परवाज़ को सोच रहा हो...

...सड़क से आती आवाज़
कमरे में घुट जाती है
अपनी धड़कन नहीं सुन पा रहा
पर सीने पर कुछ ताल है
मुझे बोध कराता हुआ
मेरे अस्तित्व का....



Thursday, October 11, 2007

कौन बसा इन आँखों मे

वक्त है सहमा, वस्ल है सहमा
कोई दिखा ना राहों में
दिन भी है डूबा, दिल भी है डूबा
तन्हा सफ़र है ख्वाबों में
ख्वाब सहर का,खवाब सहर तक
कौन बसा इन आँखों में
बात फँसी है,बात जमी है
कैसी है उलझन रातों में
जलती सबा है, चुभती सबा है
कुछ तो फँसा है साँसों में
प्यासी है हसरत,लम्बी है फ़ुरकत
अब तो मिलो बरसातों में


Sunday, October 7, 2007

तेरी बात चल गयी

संसार में सबकुछ क्षणभंगुर है,कभी-कभी हर जगह और हर पल यह अहसास होता है।
बज़्म में बैठे तो जाम चला
और साकी तेरी बात चल गयी

साकी तेरा दीदार भी तो पल भर का ही है जैसे उनके दीदार को तरस गये।
तन्हा राहों पर हम थे तन्हा
सोचा तो तेरी बात चल गयी
अकेले सफ़र पर चल निकला हूँ और तेरी याद आ गयी है।
शमां खामोश जलती थी
बुझी जो तेरी बात चल गयी

जैसे शमां ने भी कुछ देर जलकर साथ तो दिया पर वो भी साथ छोड़ गयी।
तश्नगी में बहर तक जा पहुँचे
मिटी न प्यास तेरी बात चल गयी

ऐसे में किसी शख्स को क्या पता कि कहाँ जाये?बेचारा प्यास लेकर समंदर के पास चला गया।
दिन डूबा और कुछ ना मिला
हुई है रात तेरी बात चल गयी
दिनभर कुछ-कुछ करते रहे पर इसका क्या हासिल निकला?यहाँ भी तुम याद आने लगे।
गुंचो में अटकी थी शबनम
हुई फ़नां तेरी बात चल गयी

शबनम ने भी फूल का साथ छोड़ दिया।
जमीं पर बिखरे थे कुछ पत्ते
हुये कदमत़र तेरी बात चल गयी
और जमीन पर बिखरे हुये पत्ते लोगों के कदमों के नीचे आते गये,उन्हें देखता रहा और सोचता रहा।

पुन:श्च---
बज़्म में बैठे तो जाम चला
और साकी तेरी बात चल गयी
तन्हा राहों पर हम थे तन्हा
सोचा तो तेरी बात चल गयी
शमां खामोश जलती थी
बुझी जो तेरी बात चल गयी
तश्नगी में बहर तक जा पहुँचे
मिटी न प्यास तेरी बात चल गयी
दिन डूबा और कुछ ना मिला
हुई है रात तेरी बात चल गयी
गुंचो में अटकी थी शबनम
हुई फ़नां तेरी बात चल गयी
जमीं पर बिखरे थे कुछ पत्ते
हुये कदमत़र तेरी बात चल गयी


Friday, October 5, 2007

रहा नहीं जाता

यह एक नज़्म है और अगर आप एकबारगी इसे पढ़ना चाहें तो पृष्ठ पर नीचे उतर जायें।
फ़िक्रे-यार में क्या देखा बदबख्त

गहरी शब है;कोई नज़र नहीं आता

इस ज़ुल्मतकदे में क्या हो हश्र

कोई आसरा नहीं पाता


उनकी फ़िक्र में यह कैसा समय आया है?रात भी इतनी गहरी है कि कुछ देख नहीं पा रहा।इस अँधेरे में ना जाने क्या अन्जाम हो?अब कहाँ आसरा मिले?

खिज़ा में फैली है ये खामोशी
धड़कनें सुन नहीं पाता
सिसकियाँ थमी है बेहाल
अब यूँ रहा नहीं जाता
अंदर बाहर,हर तरफ़ खामोशी ही फैली है।अपनी धड़कन की आवाज़ भी सुन नहीं पाता और सिसकियाँ भी साथ छोड़ चुकी है।इस आलम में कैसे कोई रहे?

गिरिया में तर-बतर रुख है
सबा का निशां नहीं पाता
है वीराना इस दश्त में
कोई आहट भी नहीं पाता

आँसू ढलककर चेहरे पर फैले हैं,हवा भी नहीं बह रही कि इन्हें सुखा डाले।इस जंगल में यह कैसा वीराना है?

देखी थी बेताबी कली की
शबनम से जब टूटा था नाता
कितनी दूर है बैठा वो हमदम
कभी फासला नहीं जाता

शबनम ओढे़ हुये कली कितनी खुश थी पर उसके उड़ते ही वो बेचैन हो उठी।हमारा फासला भी तो नहीं मिटता कि फिर से दीदार हो।

किसे भेजूँ कौन कासिद बने
उनकी कोई खबर नहीं पाता

कभी जो सोचे उनके कूचे को
रास्ता नज़र नहीं आता

बेताबी खबर जानने कि भी है पर कौन खबर लाये?आखिर कौन सी राह उनके दर तक जाती है?
पुन:श्च---
फ़िक्रे-यार में क्या देखा बदबख्त
गहरी शब है;नज़र नहीं आता
इस ज़ुल्मतकदे में क्या हो हश्र
कोई आसरा नहीं पाता
खिज़ा में फैली है ये खामोशी
धड़कनें सुन नहीं पाता
सिसकियाँ थमी है बेहाल
अब यूँ रहा नहीं जाता
गिरिया में तर-बतर रुख है
सबा का निशां नहीं पाता
है वीराना इस दश्त में
कोई आहट भी नहीं पाता
देखी थी बेताबी कली की
शबनम से जब टूटा था नाता
कितनी दूर है बैठा वो हमदम
कभी फासला नहीं जाता
किसे भेजूँ कौन कासिद बने
उनकी कोई खबर नहीं पाता
कभी जो सोचे उनके कूचे को
रास्ता नज़र नहीं आता

Thursday, October 4, 2007

जाने कैसा सफर होगा

गद्य के मुकाबले पद्य विधा पाठक को अपनी खुद की संवेदना की लहरों में डूबने का अवसर ज्यादा देती है।इसके बावजूद मैंने कुछ शब्दों को समझने के खयाल से उन्हें हल्के तौर पर विस्तार दिया है।अगर आपको कोई असुविधा नहीं है तो केवल नज़्म ही पढे़।अर्थ जो कि ना शब्दार्थ है ना ही भावार्थ ,आपकी कल्पना में बाधा डाल सकता है।
थमी है दरिया की शोखी

सामने आ गया बहर होगा
सामने तूफ़ान हो या खामोश तबाही,किसी भी तरह का परिवर्तन हो उसकी आहट पहले ही लगने लगती है।जैसे दरिया जब समंदर में मिलने के पहले खामोश हो जाती है।
गया है कहाँ कासिद
देखते ही किया हज़र होगा
वो कासिद संदेश लेकर गया तो जरूर है पर उसने देखते ही उससे मुँह मोड़ लिया होगा।
छूटा है साथ उनका
जाने कैसा सफर होगा
रास्ते पर हम ही अकेले बचे हैं,अब क्या पता कैसा सफ़र हो?
शब बुझ गयी शमां
तारीक ही स़हर होगा
शमां ने भी रात को बुझकर संकेत दे दिया था कि अब सुबह भी अँधेरा ही घिरा रहेगा।
हुए नाआशना हमसे
अब और भी क़हर होगा
जब आशना थे तब ही मुसीबत थी अब तो ना जाने कैसा कहर बरपे।
बेबस है कै़स सहरा में
ढूँढो़ कोई शज़र होगा
मज़नू(कै़स) तु तो तलाश में रेगिस्तान की खाक छान रहा है,कोई दरख्त(शज़र) देखकर चैन ले लो।
लगता है तड़प-तड़पकर
अपना तो अब बसर होगा
अब इस मोड़ पर क्या सोचा जाए कि ज़िन्दगी कैसे कटेगी?

पुन:श्‍च--
थमी है दरिया की शोखी
सामने आ गया बहर होगा
गया है कहाँ कासिद
देखते ही किया हज़र होगा
छूटा है साथ उनका
जाने कैसा सफर होगा
शब बुझ गयी शमां
तारीक ही स़हर होगा
हुए नाआशना हमसे
अब और भी क़हर होगा
बेबस है कै़स सहरा में
ढूँढो़ कोई शज़र होगा
लगता है तड़प-तड़पकर
अपना तो अब बसर होगा

Monday, September 24, 2007

हश्र

कैसी जगह बनी है ज़ेरे-आसमां
सिसकियाँ आठ पहर उठा करती है
कैसा कफ़स जो साथ मेरे चलता है
नसीम छोड़कर रस्ता मेरा गुजरता है

इस आसमान के नीचे यह कैसी जगह बनायी गयी है जहाँ हर पल सिसकियाँ ही सुनाई पड़ती है।एक कैद है जो हरपल मेरे साथ लगा रहता है,साथ चला करता है।और ये हवायें भी मेरा रास्ता छोड़कर गुज़रती हैं।

कुछ सिलवटें उभरी हैं पेशानी पे
कुछ करवटों का निशां है नज़र में
कुछ हसरतें चाक हुई हैं अभी
कुछ गर्द से फैले हैं सफ़र में

हालात बयां होते हैं पेशानी पर पडी़ सिलवटों से,नज़रों में कुछ है जो रात की करवटों का फ़साना कह रही हैं।और इसी बेचैनी में कुछ इच्छाएँ घुट गयी हैं।सफ़र में धूल सा बिछ गया है।

और यह गुबार-नज़र का धुन्ध
दिखती नहीं है कोई मंज़िल
भटकता जा रहा बदमस्त होकर
मँझधार में पाने को साहिल

और रास्ते पर फैला यह धूल का गुबार जो नज़रों में धुन्ध बना रहा है।इस धुन्ध में कोई मंज़िल नहीं दिखती और राही ना जाने मस्ती में कहाँ चला जा रहा है।

हमारे हश्र को अब कौन पूछे
ता-स़हर है उम्रे-शमां
दामे-ज़िन्दगी से हम छूटे
गुज़रता जा रहा है कारवां

अब क्या अंत हो? हमारे अंत की ख़बर कौन लेगा?यूँ भी शमां की उम्र सवेरा होने तक ही होती है।अगर हम ज़िंदगी की कैद से छूट भी जायें तो भी कारवां को तो बढ़ना ही है।

Saturday, September 22, 2007

डायरी के पन्ने:जनवरी 06

अक्सर हम ऐसे दौर से गुज़रते हैं जब पता ही नहीं चलता कि
हमारे साथ और दुनिया के साथ क्या हो रहा है, और क्यों हो
रहा है? अभी अपनी डायरी खोल कर देखा तो कुछ ऐसे ही लम्हें
यहाँ सिमटे पडे़ थेये सब १९ महीने पहले लिखी गयी है और कुछ
लाइनें मैंने किस तात्कालिक मानसिक अवस्था में लिखा है--अभी
पकड़ नहीं पा रहा हूँफ़िर भी यह अस्पष्टता काफ़ी कुछ कहती है
मुझसे और मेरे सामने एक दौर जिन्दा हो जाता हैआपसे भी
उस वक्त को बाँट रहा हूँ-------

३० जनवरी ०६,माघ प्रतिपदा,शहीद दिवस।
कुछ दिन भूलने योग्य नहीं होते।अनायास ही जब कभी इन दिनों के बारे
में सोचता हूँ तो किसी संस्मरण के गुजरने सी खुशी होते है।जैसे यादों से
होकर गुज़रा हूँ।बचपन में इस तरह के काफ़ी महत्वपूर्ण दिवस रटे थे,
उनमें से जो याद हैं वे मन में कभी-कभी गूँजते रहते हैं।बैठे-बैठे मैने
इन्हें मोबाइल फोन में सर्च किया।कुछ घटनायें इतिहास से उभरी और
मैंने तटस्थ होकर उन्हें देखा,अख़बार पढ़ने की तरह-क्षणिक आवेग,
उत्साह,क्षोभ और दु:ख के साथ।जैसी भी भावना इन्हें पढ़कर जागती हो।

३० जनवरी,सोमवार।अगले रविवार कोचिंग का टेस्ट है।कल ही मैंने
syllabus को देखकर प्लानिंग कर लिया है कि उन्हें कैसे पढ़ना
है,उत्तर देना है और अभ्यास करना है।मैं अपनेआप को तैयार कर रहा
हूँ।टेस्ट तात्कालिक लक्ष्य बन गया है।छोटी-छोटी सफलतायें आगे
सहयोग देती हैं।
कल ही फोन किया था।डोलू(यह उसका घर का पुकारु
नाम है) के दादाजी की तबीयत खराब है तो वे लोग उनके पास घर
पर आये हुए हैं।थोड़ा दु:ख होता है पर वो छोटी खुशी को दबा नहीं
पाता।किसी ऊँचे स्तर पर मेरी संवेदना जुड़ नहीं पाती।व्यक्तिगत से
परे थोड़ा सामाजिक स्तर पर सोचता हूँ कि क्या समय रहते इस
कष्ट को टाला नहीं जा सकता?इस स्थिति को अपने उपर सोचकर
सिहर उठता हूँ।एक अच्छा सफल आदमी और ऐसा कष्ट।अपने भविष्य
को लेकर डर लगता है।
अक्सर सोचता हूँ हमारी पीढ़ी अभी काफ़ी मस्त है।शायद यह सदियों
से होता आया है और यह दौर ही मस्ती का है।ईश्वर को धन्यवाद दूँ या
शिकायत करुँ,ऊहापोह में रहता हूँ।केन्द्र में क्या होना चाहिए यह पता
नहीं चलता है।शायद लोग बंधनमुक्त होकर सोचते हैं और उन्हें यह
जुमला दिख जाता है--चार दिन की ज़िंदगी,और एक आंतरिक प्रेरणा
होती है इसे भरपूर जीने की-तो हम जीते हैं।खुशी अपनी होती है ,बाकी
दूसरे होते हैं।दूसरों का दु:ख कोई लेना नहीं चाहता।दूसरों की खुशी से
तो प्रभावित हम जरूर होते हैं।यह प्रभाव तनाव , ईर्ष्या और आह में हो
या फ़िर कुछ विधायक लक्षणों में।हाँ, कुछ करने की चाह भी आती है।
लेकिन इस तरह कैसे रहा जा सकता है--सुरक्षा की दीवारों के बीच ही
हम गम को भुला पाते हैं और ज़िंदगी की परवाह नहीं करते। ये दीवारें,
ये हमारे बड़े लोग ही हमें इस सुरक्षा को महसूस कराने के कारक हैं।

शायद मेरे विचार स्थितिजन्य झुँझलाहट में बेहूदा तरीके से निकल रहे है।

Wednesday, September 12, 2007

इंतज़ार




इंतज़ार, हमारी जिंदगी के कुछ लम्हें इन्ही खूबसूरत,पर
कभी-कभी कातिल लम्हों में बीतते हैं। इंतज़ार में मज़ा भी है
और दर्द भी है;नशा भी है और सुरूर भी है।कभी-कभी तो
रास्ते भी इतने खुश़नुमा हो जाते हैं कि हम मंजिल भूल जाते हैं।
ऐसा खटका होने लगता है कि कहीं मंज़िल आकर इस मस्ती को
कम ना कर दे। इक शे़र है-
कहीं आके मिटा ना दे वो इंतज़ार का लुत्फ़
कहीं कबूल ना हो जाए ये इल्तिज़ा मेरी
पर मैंने इस इंतज़ार में क्या दर्द पाया और क्या खुशी महसूस की,
यह इस नज़्म में दर्ज़ है जो किसी के इंतज़ार में लिखी है-




इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

फ़िर बेखुदी में डूबे
फ़िर खटका एक जगाया
फ़िर खोये आसमां में
फ़िर दूरियों को पाया

सुनने को तेरी आहट-हुए हम बेज़ार
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

ओ ख्वाहिशों के मालिक
कहाँ भूले रास्तों में
ढूँढे़ तुझे है हरपल
नज़रें मेरी दश्तों में

क्यूँ फिज़ा है बेसदा-दिल रोया ज़ार-ज़ार
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

तेरी अदा बेजा
सताते हो बेमजा
हद हो गयी है अब
ना और दे सजा

ये बोझ सा क्या है-बढ़ता जा रहा आज़ार
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

ये शाम ढल चुकी है
कातिल बनी है रात
वीरानियों में डूबी
ये सारी काय़नात

घुटती है अब ये साँसे-बहे अश्क़ हजार
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

गुल शबनमी देखे
गुल कितने रँगीं देखे
गुलशन में तूने हर डगर
गुल ही गुल देखे

अब देख आकर चाक-सीना हो गया गुलज़ार
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

है अज़ल का खिलौना
मेरा सूना कारवां
किस राह पर मिलेगा
मुझे तेरा खाके-पां

पल-दो-पल बचे हैं-पर कैसे दूँ गुजार
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

अब मौत आ चुकी है
ये हस्ती मिट चुकी है
इक मुझे छोड़कर
फ़िजा बदल चुकी है

कभी देखना ऐ हमदम-आके मेरी मज़ार
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

दश्त--जंगल
बेसदा--खामोश
आज़ार--कष्ट
चाक--फटा हुआ
अज़ल--मौत

Monday, September 10, 2007

तेरी आदत खराब है




और फ़िर से वही आहट,फ़िर उसी तरह बहकना-क्या करें जब मन
लगे तभी तो लिखने बैठता हूँ
रात,आधी रात और जागती आँखों में
जागता ख्वाब;दुनिया की सरगर्मी से जलते दिल पर अभी
ओस की ठंढक पड़ी है
उसी नशे की प्रतीक्षा में था
और आँखों के भँवर में वही स्वर गूँजने लगे


बस और कुछ नहीं तेरी आदत खराब है


हंगामा है सितारों में
मचलता माहताब है
साकी तेरे दर पर
रिन्द का आदाब है
यूँ बेरुखी से होते हो मुकाबिल हमसे
बस और कुछ नहीं तेरी आदत खराब है

ढाते हो कहर इस कदर
आता अज़ाब है
बोलो तेरी अदा का
क्या जवाब है
और उसपे यूँ सिमट के लौट जाना
बस और कुछ नहीं तेरी आदत खराब है

क्यों ना हो सोज़े-दिल
नज़र में आफ़ताब है
है तू इक गज़ल
या पूरी किताब है
मुझको जलाते हो क्यों रफ़्ता-रफ़्ता
बस और कुछ नहीं तेरी आदत खराब है

आए हो किस जहाँ से
क्या कातिल शवाब है
बेचैनी को बढाता
तेरा हिज़ाब है
रुख को छिपाते हो नज़रों से हमारी
बस और कुछ नहीं तेरी आदत खराब है

तु सच में है इक आतिश
या कोई आब है
या मेरी निगाहों में
उतरा सराब है
जो भी है तू पर एक सुनहरा ख्वाब है
बस और कुछ नहीं तेरी आदत खराब है

बस और कुछ नहीं तेरी आदत खराब है

माहताब--चाँद
रिन्द--शराबी
मुकाबिल होना--सामना करना
अजाब--बड़ी विपदा
आफ़ताब--सूरज़
रफ़्ता--धीरे
हिज़ाब--परदा(चेहरे पर पड़ा हुआ)
रुख--चेहरा
आतिश--आग
आब--पानी
सऱाब--मरीचिका




teri aadat kharab ...

Saturday, September 8, 2007

साहिरी



आज़ एक नया प्रयोग करना चाहा-कुछ गज़ल और शेर जो अक्सर मेरे सामने तैरते
रहत थे,उन्हे सोचकर और उनकी भावनाओं को लेकर लिखा।
शब्द उधार के हैं,और मैं इन्हें कुछ शेरों तक ही पहचानता हूँ।
अगर कहीं लगे की यह प्रयोग (शब्द-प्रयोग)उचित नहीं है,तो कृपया
मार्गदर्शन करेन्गे।फ़िर भी अपनी सीमा तक उनके अर्थ दे रहा हूँ।



बख्त़ बद ये नहीं, कि तू नहीं
तेरे गुलशन में
पर हम नहीं
संगदिल सूखी है तेरी सरज़मी
मेरी आँखों में सिमटी है नमी

मेरे नालों,दफ़न हो जाओ
किसी की नींद उड़ ना जाये कहीं
क्या नया होगा अब रोज़े-ज़ज़ा
रंजो-आज़ार झेले हमने यहीं

जब्र करते हैं तेरे सारे सितम
क्या है सीखी तुने ऎसी साहिरी
भूल ना पाऊँ और सुलगता रहूँ
खवाब में आती है ज़ुल्फ़ें मरमरी

खुदा दिल को ज़रा सुकून दे
कब तलक सहूँ ये सोज-े आज़री
शमां तू तो जले बस स़हर तक
तेरी मेरी कैसे होगी सरवरी

बख्त़-बद---बुरा वक्त
संग---पत्थर
नाला--आवाज़,पुकार
रोज़े-ज़ज़ा---कयामत के दिन
रन्ज़ो-आज़ार--दुख और कष्ट
ज़ब्र-सहन
साहिरी-जादूगर
सोज़े-आज़री--आग की जलन
सरवरी---बराबरी


saahiri.mp3

Thursday, August 30, 2007

इशारा कर दे



भक्ति और प्रेम (जिसे सामान्यत: लोग प्रेम कहते हैं)दो बिल्कुल अगल सी चीज लगती है ,
अपनी बुद्धि से सोचा जाये तो ये कहीं नहीं मिलते!वस्तुत: यह विषय हृदय के कार्यक्षेत्र में है!
वैसे भक्ति के बारे में यह भी कहा गया है कि-
वासना जब उपासना बन जाये तो उसे भक्ति कहते हैं
कभी जब आप रूमानी होकर किसी को याद करते हैं तो कुछ ऎसी ही अस्पष्ट
स्थिति होती है !लिखते वक़्त भी मुझे लगा की कहीं उस ईश्वरीय सत्ता को तो नहीं पुकार रहा हूँ?
भक्ति पथ कहता भी है कि हम इस संसार मे आकर भी भगवान को भुला नहीं पाते-सारे भौतिकवादी
ऐश्वर्य को पाने कि हमारी लालसा वस्तुत: उसी परम तत्व से साक्षात्कार की चरम इच्छा है !
हम यहाँ आकर उस सुख को भौतिक साधनों मे ढूंढते हैं!
जो भी हो ये हल्का आभास तो हमेशा होता है कि अभी मेरी पुकार शून्य मे उसी सत्ता को खोज रही है!





बशर-आदमी,इतिहास में बशर का जिक्र है
सदा-आवाज
शब-रात
सहर-सुबह
रक्से़-शरारा- बिज़ली का नृत्य

ishara kar de-prab...

Saturday, August 25, 2007

ये मेरी नज़र भी परीशां बहुत है



क्या बताऊँ,कैसे कहूँ,बस तेरा दीदार करता रहा और कुछ सोचता रहा!
वक़्त थमकर मुझे देखता रहा और मुस्कुराता रहा
कभी बेचैनी कभी ख़ुशी कभी तैरती मुस्कराहट कभी बिखरती खुशबू
और उसपर कभी चंचल कभी थमी हुई मेरी नज़र
माना कि ये एक दूसरी दुनिया है पर कुछ देर मैंने इस जहाँ कि भी सैर कर ली
कुछ छुपाना नहीं चाहता इसीलिये जो भी भाव आते गए उसे कागज़ पर उतारता रहा
सब एक साँस में लिखी गयी है और पुन: संपादन नहीं किया गया है!

तो आप भी कुछ पल इस सैर में हमसफ़र हो लें-


ये मेरी
नज़र भी परीशां बहुत है
ये मेरी नज़र भी परीशां बहुत है

आँचल ढलककर ना छेड उनको
शाने तू ज़ुल्फ़ों से खेला ना
कर
वो रुखसार पर चमके
पसीने
वो परी-रु परीशां बहुत
है
ये मेरी नज़र भी परीशां बहुत है
ये मेरी नज़र भी परीशां बहुत है

पीते हैं आँखों से साकी की आँखें
ये सोयी सी आँखें परीशां बहुत है
भेजा है किसने बनाकर ये शोला
जल-जल के हम परीशां बहुत हैं
ये मेरी नज़र भी परीशां बहुत है

किस अदा से है बिखरी लबों पे हँसी
कुछ निकले तरन्नुम बढी
मयकशी
इस बिखरे शबाब को निगाहों से
चुनना
ये दिल अब हमारा परीशां बहुत
है
ये मेरी नज़र भी परीशां बहुत है

क्या कह दूँ तुझे आगाज़े-कयामत
बहुत बेखबर हो बताऊँ क्या हालत
खोयी हैं नींदें खुद का है होश
फ़लक पे सितारे सुहाने बहुत हैं
ये
मेरी नज़र भी परीशां बहुत है
ये मेरी नज़र भी परीशां बहुत है