Saturday, September 8, 2007

साहिरी



आज़ एक नया प्रयोग करना चाहा-कुछ गज़ल और शेर जो अक्सर मेरे सामने तैरते
रहत थे,उन्हे सोचकर और उनकी भावनाओं को लेकर लिखा।
शब्द उधार के हैं,और मैं इन्हें कुछ शेरों तक ही पहचानता हूँ।
अगर कहीं लगे की यह प्रयोग (शब्द-प्रयोग)उचित नहीं है,तो कृपया
मार्गदर्शन करेन्गे।फ़िर भी अपनी सीमा तक उनके अर्थ दे रहा हूँ।



बख्त़ बद ये नहीं, कि तू नहीं
तेरे गुलशन में
पर हम नहीं
संगदिल सूखी है तेरी सरज़मी
मेरी आँखों में सिमटी है नमी

मेरे नालों,दफ़न हो जाओ
किसी की नींद उड़ ना जाये कहीं
क्या नया होगा अब रोज़े-ज़ज़ा
रंजो-आज़ार झेले हमने यहीं

जब्र करते हैं तेरे सारे सितम
क्या है सीखी तुने ऎसी साहिरी
भूल ना पाऊँ और सुलगता रहूँ
खवाब में आती है ज़ुल्फ़ें मरमरी

खुदा दिल को ज़रा सुकून दे
कब तलक सहूँ ये सोज-े आज़री
शमां तू तो जले बस स़हर तक
तेरी मेरी कैसे होगी सरवरी

बख्त़-बद---बुरा वक्त
संग---पत्थर
नाला--आवाज़,पुकार
रोज़े-ज़ज़ा---कयामत के दिन
रन्ज़ो-आज़ार--दुख और कष्ट
ज़ब्र-सहन
साहिरी-जादूगर
सोज़े-आज़री--आग की जलन
सरवरी---बराबरी


saahiri.mp3

1 comment:

Shastri JC Philip said...

"ए खुदा दिल को ज़रा सुकून दे
कब तलक सहूँ ये सोजे आज़री "

वाह वाह !

आखिर में जो शब्दार्थ दिया है उसके लिये आभार -- शास्त्री जे सी फिलिप

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