Sunday, February 24, 2008

तुम कहाँ?

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रात जवां है और एक मुद्दत के बाद आधी रात को चाँद के बगैर सूना आसमां दिख रहा है।ख्वाबों ने आज नींद को रुखसत कर दिया है,बेकरारी फिर से ज़िस्मों-जां में चुभ रही है।जब नींद का नशा ना हो तो कौन सा खयाल अभी सुकून पहुँचाये।

मैं काफ़िर बना हूँ दीवाना बनके
प्यासे होठों पे खाली पैमाना बनके।
इश्क की लौ लरजती है लेकिन
जल जायें कैसे परवाना बनके॥
तुम कहीं नज़र नहीं आते,किस शमां में यह परवाना जले?किस आग में जलकर तुमसे मिलूँ।पर अगर यूँ जलना ही मेरी तासीर है तो कुछ तो इशारा कर,मेरी दहकती साँसों को वजूद दे,जो बेवजह ही सुलगकर मिट रही हैं।

कोई उल्फ़त की खब़र दे दे क्या शै है
वो नज़र में आते हैं शरारा बनके।
यह चीज जो इबादत है होती क्या है
सज़दे में तो पड़े हैं तुम्हारा बनके॥
एक आस तो ज़मीं है तेरे वज़ूद पर जो बिना कुछ समझे तुझे मानता है,तुझे हर ज़र्रे में ढ़ूँढ़ता है,हर नजारे में तेरा अक्स देखता है,हर तदबीर को तेरा सहारा मानता है,हर तकदीर में तेरी रज़ामंदी मानता है।
अब उनकी ख़बर आये कैसे
कासिद रह गया है उनका बनके।
मचलती सबा संग हम भी चले हैं
उन्हें पाने को तिनका बनके॥
कहाँ ढ़ूँढ़ें,किससे पता लें।जो गया वहीं का होकर रह गया।अब तो किस्मत और हालात का यही तकाज़ा है कि हर ज़र्रे से उनका पता लें।