वो सात बरस की होगी। एक दो साल बड़ी भी हो सकती है।वैसे उम्र के मामले में मैं कभी विश्वास के साथ अनुमान नहीं लगा पाया।बल्कि,हमेशा मुझे चौंकानेवाले क्षणों से गुजरना पड़ा है।मेरे लिये किसी की उम्र पकड़ना काफ़ी टेढ़ी खीर है।इसके लिये मैंने हमेशा सापेक्षिक तौर पर सोचा है,जैसे सहपाठियों और सगे-संबंधियों की उम्र से तुलना करके ही किसी गलत सही निष्कर्ष पर पहुँच पाता हूँ।
खैर,मैंने उसे पाँच सेकण्ड के लिये देखा होगा।मैं नहर के किनारे-किनारे ऊँचे आल पर चल रहा था।पगडंडी सी नज़र आती सड़क को पकड़ने के लिये।इस सड़क पर ड़ेढ़ दो घंटे में कोई गाड़ी गुज़र जाती थी।
जिस ग्राम्य परिवेश से मैं गुज़र रहा था, वो मेरे अनुभव का एक अनमोल कोना बना रहेगा। क्योंकि,और भी काफ़ी स्मृतियाँ जुड़ी हुईं हैं इस प्रांत से। यद्यपि,मैं भी गाँव में ही रहता हूँ पर,मेरा गाँव सड़क पर बसा है और लोगों क एक वर्ग भी काफ़ी आधुनिक हो चला है।खेतों में चलने का मौका छूट जाता है।फ़िर भी अपने घूमन्तू स्वभाववश मैंने बसंत के दिनों में इनके खूब चक्कर लगाये हैं।मैं अपनी माँ के ननिहाल गया था।इतने दूर के रिश्ते अब कम ही मिलते हैं,पर अभी हमारे संबंधों में काफ़ी गर्मी थी।अब तो शायद यह कोना भी छूट रहा है मेरी तरफ़ से,आधुनिक भागमभाग में।अभी भी ढ़ाई घण्टे चलकर वहाँ पहुँचता हूँ।कुछ धागे उलझे हुए हैं जिनके कारण मज़बूरन जाना पड़ता है।
हाँ, तो लौटते हुए उस बच्ची को मैंने देखा था।वो माथे पर मिट्टी ढ़ो रही थी।साथ में और भी औरत,बच्चे और मर्द थे।मैं एक अलग दुनिया का चलता राही था।धूप तेज़ नहीं थी,दस बजे होंगे और पसीना निकल रहा था।मैने उसे देखा और आगे बढ़ गया पर,वो मेरी सोच का केंद्र बन गयी।अब मैं यंत्रवत चलने लगा,बिल्कुल तटस्थ होकर।मैंने अबतक की ज़िन्दगी बेफ़िक्र तो नहीं गुज़ारी पर कभी कुछ खास तनाव नहीं हुआ।घर-परिवार की तरफ़ से भी उन्मुक्त छोड़ दिया गया हूँ।मेरे लिये मिट्टी ढोना कोई बड़ी बात नहीं थी।इन सब चीज़ों को पहली बार देखा होता तो शायद निराला की 'वो तोड़ती पत्थर' सी तीव्र संवेदना होती।पर ये उतनी गहरी नहीं थी।बचपन में खेल-खेल में मैंने भी अपनी मस्ती मे इस तरह का काम किया है,घरवालों के मना करने के बावजूद।पर,वो मानसिक चंचलतावश किया गया काम था।शायद,जरूरत पड़ने पर मैं इन कामों से कन्नी काटूँ।
उसका मिट्टी ढ़ोना अज़ीब नहीं था,शायद उसकी उम्र मुझे खटक रही थी।मैं चलते हुए उसकी आँखों को प्रत्यक्ष पा रहा था।इस बेचैनी में सौंदर्य का एक और स्तर मेरे सामने खुल रहा था।छोटे बच्चों को देखकर,उनके सुंदर मुखड़े को देखकर लगता है कि हमेशा खुश रहना इनका अधिकार है। मासूमियत उसके चेहरे पर छलक रही थी।शायद,किसी छोटी जाति की होगी। जाति को लेकर कभी चिंतन नहीं करता पर ग्रामीण परिवेश में इतना चिंतन तो हो ही जाता है।मन में ऐसी सोच आने से कभी अपराधबोध नहीं हुआ।कभी इस तरह सोचना काफ़ी सकारात्मक सा दिखता है।लगता है इस तरह का खुलापन कुछ विकृतियों को कम करता है;विकृतियाँ जो कभी विस्फ़ोटक प्रतिक्रियाओं का कारण बनती है।इस तरह का बचपना मैंने वृद्दों में भी पाया है।वो काफ़ी काली थी,काली सूरत पर बड़ी-बड़ी आँखें।मुझे किस बात का अफ़सोस हो रहा था?वो कुछ देर पहले खेल रही होगी और फ़िर खेलने लगेगी।फ़िर कौन सी विषमता मुझे परेशान कर रही थी यह मैं कभी साफ़-साफ़ नहीं देख पाया।शायद यह कुछ क्षणों की अतिसंवेदनशीलता थी।
अब मैं काफ़ी आगे आ गया हूँ और जरा भी भावुक नहीं हूँ।अब मैं छोटी बातों पर भी खुलकर हँस सकता हूँ।नहीं,मेरी आँखें शून्य में खोना चाहती हैं।कारण नहीं ढ़ूँढ़ पा रहा।सबकुछ तो स्वाभाविक सा ही लगता है।