Tuesday, July 31, 2007

तुम ठहर जाते




आज कक्षा में २० मिनट का खाली समय मिल गया ,सो कुछ लिखने का मन हुआ ! कुछ ज़्यादा प्रयास नहीं किया है ! फिर भी आशा करता हूँ कि आपको बुरा नहीं लगेगा !


है चार पल की ज़िन्दगी तो
दो पल को तुम ठहर जाते
गम में बदल रही सारी खुशियाँ
दो पल को तुम ठहर जाते

फ़िजा होने लगी है वीरानी
दो पल को तुम ठहर जाते
बना है सहरा फ़िर राज़दां मेरा
दो पल को तुम ठहर जाते
दर्दे-दिल बना है दर्दे-सर
दो पल को तुम ठहर जाते
दर्दे-जहाँ की फ़िर हुई दस्तक़
दो पल को तुम ठहर जाते
भूला जाता हूँ राह में राहरौ
दो पल को तुम ठहर जाते
निकलती है किसी की जाँ हमदम
दो पल को तुम ठहर जाते
ऐ सुबह, न मिटती शबनम
दो पल को तुम ठहर जाते

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Monday, July 30, 2007

डायरी के पन्ने:ग्रीष्म २००५



वो सात बरस की होगी। एक दो साल बड़ी भी हो सकती है।वैसे उम्र के मामले में मैं कभी विश्वास के साथ अनुमान नहीं लगा पाया।बल्कि,हमेशा मुझे चौंकानेवाले क्षणों से गुजरना पड़ा है।मेरे लिये किसी की उम्र पकड़ना काफ़ी टेढ़ी खीर है।इसके लिये मैंने हमेशा सापेक्षिक तौर पर सोचा है,जैसे सहपाठियों और सगे-संबंधियों की उम्र से तुलना करके ही किसी गलत सही निष्कर्ष पर पहुँच पाता हूँ।
खैर,मैंने उसे पाँच सेकण्ड के लिये देखा होगा।मैं नहर के किनारे-किनारे ऊँचे आल पर चल रहा था।पगडंडी सी नज़र आती सड़क को पकड़ने के लिये।इस सड़क पर ड़ेढ़ दो घंटे में कोई गाड़ी गुज़र जाती थी।
जिस ग्राम्य परिवेश से मैं गुज़र रहा था, वो मेरे अनुभव का एक अनमोल कोना बना रहेगा। क्योंकि,और भी काफ़ी स्मृतियाँ जुड़ी हुईं हैं इस प्रांत से। यद्यपि,मैं भी गाँव में ही रहता हूँ पर,मेरा गाँव सड़क पर बसा है और लोगों क एक वर्ग भी काफ़ी आधुनिक हो चला है।खेतों में चलने का मौका छूट जाता है।फ़िर भी अपने घूमन्तू स्वभाववश मैंने बसंत के दिनों में इनके खूब चक्कर लगाये हैं।मैं अपनी माँ के ननिहाल गया था।इतने दूर के रिश्ते अब कम ही मिलते हैं,पर अभी हमारे संबंधों में काफ़ी गर्मी थी।अब तो शायद यह कोना भी छूट रहा है मेरी तरफ़ से,आधुनिक भागमभाग में।अभी भी ढ़ाई घण्टे चलकर वहाँ पहुँचता हूँ।कुछ धागे उलझे हुए हैं जिनके कारण मज़बूरन जाना पड़ता है।

हाँ, तो लौटते हुए उस बच्ची को मैंने देखा था।वो माथे पर मिट्टी ढ़ो रही थी।साथ में और भी औरत,बच्चे और मर्द थे।मैं एक अलग दुनिया का चलता राही था।धूप तेज़ नहीं थी,दस बजे होंगे और पसीना निकल रहा था।मैने उसे देखा और आगे बढ़ गया पर,वो मेरी सोच का केंद्र बन गयी।अब मैं यंत्रवत चलने लगा,बिल्कुल तटस्थ होकर।मैंने अबतक की ज़िन्दगी बेफ़िक्र तो नहीं गुज़ारी पर कभी कुछ खास तनाव नहीं हुआ।घर-परिवार की तरफ़ से भी उन्मुक्त छोड़ दिया गया हूँ।मेरे लिये मिट्टी ढोना कोई बड़ी बात नहीं थी।इन सब चीज़ों को पहली बार देखा होता तो शायद निराला की 'वो तोड़ती पत्थर' सी तीव्र संवेदना होती।पर ये उतनी गहरी नहीं थी।बचपन में खेल-खेल में मैंने भी अपनी मस्ती मे इस तरह का काम किया है,घरवालों के मना करने के बावजूद।पर,वो मानसिक चंचलतावश किया गया काम था।शायद,जरूरत पड़ने पर मैं इन कामों से कन्नी काटूँ।

उसका मिट्टी ढ़ोना अज़ीब नहीं था,शायद उसकी उम्र मुझे खटक रही थी।मैं चलते हुए उसकी आँखों को प्रत्यक्ष पा रहा था।इस बेचैनी में सौंदर्य का एक और स्तर मेरे सामने खुल रहा था।छोटे बच्चों को देखकर,उनके सुंदर मुखड़े को देखकर लगता है कि हमेशा खुश रहना इनका अधिकार है। मासूमियत उसके चेहरे पर छलक रही थी।शायद,किसी छोटी जाति की होगी। जाति को लेकर कभी चिंतन नहीं करता पर ग्रामीण परिवेश में इतना चिंतन तो हो ही जाता है।मन में ऐसी सोच आने से कभी अपराधबोध नहीं हुआ।कभी इस तरह सोचना काफ़ी सकारात्मक सा दिखता है।लगता है इस तरह का खुलापन कुछ विकृतियों को कम करता है;विकृतियाँ जो कभी विस्फ़ोटक प्रतिक्रियाओं का कारण बनती है।इस तरह का बचपना मैंने वृद्दों में भी पाया है।वो काफ़ी काली थी,काली सूरत पर बड़ी-बड़ी आँखें।मुझे किस बात का अफ़सोस हो रहा था?वो कुछ देर पहले खेल रही होगी और फ़िर खेलने लगेगी।फ़िर कौन सी विषमता मुझे परेशान कर रही थी यह मैं कभी साफ़-साफ़ नहीं देख पाया।शायद यह कुछ क्षणों की अतिसंवेदनशीलता थी।
अब मैं काफ़ी आगे आ गया हूँ और जरा भी भावुक नहीं हूँ।अब मैं छोटी बातों पर भी खुलकर हँस सकता हूँ।नहीं,मेरी आँखें शून्य में खोना चाहती हैं।कारण नहीं ढ़ूँढ़ पा रहा।सबकुछ तो स्वाभाविक सा ही लगता है।

Saturday, July 28, 2007

दूरियाँ



परीक्षाओं की वजह से इधर २० दिन काफ़ी गर्दिश भरे रहेमेरी पुरानी प्रेषित रचनायें पढकर मेरे एक सहपाठी ने ये आरोप लगाया कि सारी तुम्हारी तरह हैं-बोरिंग और आत्मकेंद्रितकल जब परीक्षाएँ समाप्त हो गयी तो आज कुछ अलग लिखना चाहापर जल्दी ही मुझे आभास हुआ की मैं उसी पुराने अवसाद को यहाँ भी बिखेर रहा हूँखैर,जो भी बन पड़ा है वो एक अभिव्यक़्ति है आप चाहें तो कुछ समय दे दें

तेरे दीदार से हस्ती का गुमां होता है
ऐसा ही हम मस्तों का जहां होता है
तसव्वुर में कभी आते हो तुम तो
बागे-हयात में खुशबू का समां होता है

देखता हूँ मैं बंद करके आँखे
ज़ख्मे-दिल पे तेरा निशां होता है
कब पहुँचेगी तुझतक ये सदा
एक शख्स है जो आहिस्ता फ़नां होता है

आती नहीं है कोई ठंढी आह भी
जब तू कभी मेहरबां होता है
कैसे कहूँ अपने दिल को अपना मैं
तेरे दर्द का या तेरा मकां होता है

टूटती साँसों का छूटा कारवां
अब नहीं हालत ये बयां होता है
फिर लगी है अब मुझे ये हिचकियाँ
ख़्वाब का मंज़र ये वीरां होता है

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Sunday, July 15, 2007

ख़ामोशी



कुछ हादसे हुए हैं इधर जिनसे मैं काफ़ी प्रभावित हुआ हूँभावनायें जो कहीं हृदय मे गाँठ बनायें रहती हैं ,खुलने पर कफ़ी दर्द दे जाती हैंएक वही आलम था और मैं घर की छत पर ज़ख्मों को सहला रहा था





चाँद, फ़िर तुम मुझे घूरते हो!

चाँद, फ़िर तुम मुझे घूरते हो!
अकेली छत पे यूँ ही आ पड़ा हूँ
नक़ाब से आँसू नहीं निकलते हैं
आज नक़ाब उतारने चला हूँ।

सिसकती रुह है, अनजानापन है
हवाएँ भी कुछ कहती हैं मुझसे
हर पल ख़ुद को समझाता हूँ मैं
एक मायूस हँसी हँस जाता हूँ मैं

मुझे परदा नहीं है तुमसे कुछ भी
न जाने क्या-क्या कहा है मैंने तुझसे
सदियों से कहता आ रहा हूँ शायद
तुम इतने शांत से क्यों रहते हो?

तुमने भी कुछ खोया है शायद ।

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टुकड़े



[ना जाने कितने टुकड़ों मे हम बँटे होते हैं
कितनी दुनियाँ मे एक साथ जीते हैंवो अंतराल जब हम एक दुनिया से दूसरी दुनिया में विसरित होते हैं ,काफ़ी संघातक बन जाता है जब सीने मे फफोले होंफ़िर भी हमें मुस्कुराना होता है ताकि खुशियाँ लुटा सकें।]




मैं टुकड़ों में बिखरा पड़ा था
खो गये कुछ टुकड़े
मेरे सीने को भारी कर गये
आँखें नम नहीं होने देता मैं
काफ़ी मशक्कत से रोकता हूँ इस उबाल को
मुझे जीना है खुशनुमा लोगों के बीच
मनहूसियत से हर क़दम पर बचते हुए
पर
एक टीस जो अक्सर उभर कर आती है
मेरी हस्ती को सवालों मे फाँस जाती है
न जने कबतक ये दर्द सिमटता रहेगा
मेरा अक्स बनता-बिगड़ता रहेगा

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