Monday, September 24, 2007

हश्र

कैसी जगह बनी है ज़ेरे-आसमां
सिसकियाँ आठ पहर उठा करती है
कैसा कफ़स जो साथ मेरे चलता है
नसीम छोड़कर रस्ता मेरा गुजरता है

इस आसमान के नीचे यह कैसी जगह बनायी गयी है जहाँ हर पल सिसकियाँ ही सुनाई पड़ती है।एक कैद है जो हरपल मेरे साथ लगा रहता है,साथ चला करता है।और ये हवायें भी मेरा रास्ता छोड़कर गुज़रती हैं।

कुछ सिलवटें उभरी हैं पेशानी पे
कुछ करवटों का निशां है नज़र में
कुछ हसरतें चाक हुई हैं अभी
कुछ गर्द से फैले हैं सफ़र में

हालात बयां होते हैं पेशानी पर पडी़ सिलवटों से,नज़रों में कुछ है जो रात की करवटों का फ़साना कह रही हैं।और इसी बेचैनी में कुछ इच्छाएँ घुट गयी हैं।सफ़र में धूल सा बिछ गया है।

और यह गुबार-नज़र का धुन्ध
दिखती नहीं है कोई मंज़िल
भटकता जा रहा बदमस्त होकर
मँझधार में पाने को साहिल

और रास्ते पर फैला यह धूल का गुबार जो नज़रों में धुन्ध बना रहा है।इस धुन्ध में कोई मंज़िल नहीं दिखती और राही ना जाने मस्ती में कहाँ चला जा रहा है।

हमारे हश्र को अब कौन पूछे
ता-स़हर है उम्रे-शमां
दामे-ज़िन्दगी से हम छूटे
गुज़रता जा रहा है कारवां

अब क्या अंत हो? हमारे अंत की ख़बर कौन लेगा?यूँ भी शमां की उम्र सवेरा होने तक ही होती है।अगर हम ज़िंदगी की कैद से छूट भी जायें तो भी कारवां को तो बढ़ना ही है।

Saturday, September 22, 2007

डायरी के पन्ने:जनवरी 06

अक्सर हम ऐसे दौर से गुज़रते हैं जब पता ही नहीं चलता कि
हमारे साथ और दुनिया के साथ क्या हो रहा है, और क्यों हो
रहा है? अभी अपनी डायरी खोल कर देखा तो कुछ ऐसे ही लम्हें
यहाँ सिमटे पडे़ थेये सब १९ महीने पहले लिखी गयी है और कुछ
लाइनें मैंने किस तात्कालिक मानसिक अवस्था में लिखा है--अभी
पकड़ नहीं पा रहा हूँफ़िर भी यह अस्पष्टता काफ़ी कुछ कहती है
मुझसे और मेरे सामने एक दौर जिन्दा हो जाता हैआपसे भी
उस वक्त को बाँट रहा हूँ-------

३० जनवरी ०६,माघ प्रतिपदा,शहीद दिवस।
कुछ दिन भूलने योग्य नहीं होते।अनायास ही जब कभी इन दिनों के बारे
में सोचता हूँ तो किसी संस्मरण के गुजरने सी खुशी होते है।जैसे यादों से
होकर गुज़रा हूँ।बचपन में इस तरह के काफ़ी महत्वपूर्ण दिवस रटे थे,
उनमें से जो याद हैं वे मन में कभी-कभी गूँजते रहते हैं।बैठे-बैठे मैने
इन्हें मोबाइल फोन में सर्च किया।कुछ घटनायें इतिहास से उभरी और
मैंने तटस्थ होकर उन्हें देखा,अख़बार पढ़ने की तरह-क्षणिक आवेग,
उत्साह,क्षोभ और दु:ख के साथ।जैसी भी भावना इन्हें पढ़कर जागती हो।

३० जनवरी,सोमवार।अगले रविवार कोचिंग का टेस्ट है।कल ही मैंने
syllabus को देखकर प्लानिंग कर लिया है कि उन्हें कैसे पढ़ना
है,उत्तर देना है और अभ्यास करना है।मैं अपनेआप को तैयार कर रहा
हूँ।टेस्ट तात्कालिक लक्ष्य बन गया है।छोटी-छोटी सफलतायें आगे
सहयोग देती हैं।
कल ही फोन किया था।डोलू(यह उसका घर का पुकारु
नाम है) के दादाजी की तबीयत खराब है तो वे लोग उनके पास घर
पर आये हुए हैं।थोड़ा दु:ख होता है पर वो छोटी खुशी को दबा नहीं
पाता।किसी ऊँचे स्तर पर मेरी संवेदना जुड़ नहीं पाती।व्यक्तिगत से
परे थोड़ा सामाजिक स्तर पर सोचता हूँ कि क्या समय रहते इस
कष्ट को टाला नहीं जा सकता?इस स्थिति को अपने उपर सोचकर
सिहर उठता हूँ।एक अच्छा सफल आदमी और ऐसा कष्ट।अपने भविष्य
को लेकर डर लगता है।
अक्सर सोचता हूँ हमारी पीढ़ी अभी काफ़ी मस्त है।शायद यह सदियों
से होता आया है और यह दौर ही मस्ती का है।ईश्वर को धन्यवाद दूँ या
शिकायत करुँ,ऊहापोह में रहता हूँ।केन्द्र में क्या होना चाहिए यह पता
नहीं चलता है।शायद लोग बंधनमुक्त होकर सोचते हैं और उन्हें यह
जुमला दिख जाता है--चार दिन की ज़िंदगी,और एक आंतरिक प्रेरणा
होती है इसे भरपूर जीने की-तो हम जीते हैं।खुशी अपनी होती है ,बाकी
दूसरे होते हैं।दूसरों का दु:ख कोई लेना नहीं चाहता।दूसरों की खुशी से
तो प्रभावित हम जरूर होते हैं।यह प्रभाव तनाव , ईर्ष्या और आह में हो
या फ़िर कुछ विधायक लक्षणों में।हाँ, कुछ करने की चाह भी आती है।
लेकिन इस तरह कैसे रहा जा सकता है--सुरक्षा की दीवारों के बीच ही
हम गम को भुला पाते हैं और ज़िंदगी की परवाह नहीं करते। ये दीवारें,
ये हमारे बड़े लोग ही हमें इस सुरक्षा को महसूस कराने के कारक हैं।

शायद मेरे विचार स्थितिजन्य झुँझलाहट में बेहूदा तरीके से निकल रहे है।

Wednesday, September 12, 2007

इंतज़ार




इंतज़ार, हमारी जिंदगी के कुछ लम्हें इन्ही खूबसूरत,पर
कभी-कभी कातिल लम्हों में बीतते हैं। इंतज़ार में मज़ा भी है
और दर्द भी है;नशा भी है और सुरूर भी है।कभी-कभी तो
रास्ते भी इतने खुश़नुमा हो जाते हैं कि हम मंजिल भूल जाते हैं।
ऐसा खटका होने लगता है कि कहीं मंज़िल आकर इस मस्ती को
कम ना कर दे। इक शे़र है-
कहीं आके मिटा ना दे वो इंतज़ार का लुत्फ़
कहीं कबूल ना हो जाए ये इल्तिज़ा मेरी
पर मैंने इस इंतज़ार में क्या दर्द पाया और क्या खुशी महसूस की,
यह इस नज़्म में दर्ज़ है जो किसी के इंतज़ार में लिखी है-




इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

फ़िर बेखुदी में डूबे
फ़िर खटका एक जगाया
फ़िर खोये आसमां में
फ़िर दूरियों को पाया

सुनने को तेरी आहट-हुए हम बेज़ार
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

ओ ख्वाहिशों के मालिक
कहाँ भूले रास्तों में
ढूँढे़ तुझे है हरपल
नज़रें मेरी दश्तों में

क्यूँ फिज़ा है बेसदा-दिल रोया ज़ार-ज़ार
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

तेरी अदा बेजा
सताते हो बेमजा
हद हो गयी है अब
ना और दे सजा

ये बोझ सा क्या है-बढ़ता जा रहा आज़ार
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

ये शाम ढल चुकी है
कातिल बनी है रात
वीरानियों में डूबी
ये सारी काय़नात

घुटती है अब ये साँसे-बहे अश्क़ हजार
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

गुल शबनमी देखे
गुल कितने रँगीं देखे
गुलशन में तूने हर डगर
गुल ही गुल देखे

अब देख आकर चाक-सीना हो गया गुलज़ार
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

है अज़ल का खिलौना
मेरा सूना कारवां
किस राह पर मिलेगा
मुझे तेरा खाके-पां

पल-दो-पल बचे हैं-पर कैसे दूँ गुजार
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

अब मौत आ चुकी है
ये हस्ती मिट चुकी है
इक मुझे छोड़कर
फ़िजा बदल चुकी है

कभी देखना ऐ हमदम-आके मेरी मज़ार
इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार इंतज़ार

दश्त--जंगल
बेसदा--खामोश
आज़ार--कष्ट
चाक--फटा हुआ
अज़ल--मौत

Monday, September 10, 2007

तेरी आदत खराब है




और फ़िर से वही आहट,फ़िर उसी तरह बहकना-क्या करें जब मन
लगे तभी तो लिखने बैठता हूँ
रात,आधी रात और जागती आँखों में
जागता ख्वाब;दुनिया की सरगर्मी से जलते दिल पर अभी
ओस की ठंढक पड़ी है
उसी नशे की प्रतीक्षा में था
और आँखों के भँवर में वही स्वर गूँजने लगे


बस और कुछ नहीं तेरी आदत खराब है


हंगामा है सितारों में
मचलता माहताब है
साकी तेरे दर पर
रिन्द का आदाब है
यूँ बेरुखी से होते हो मुकाबिल हमसे
बस और कुछ नहीं तेरी आदत खराब है

ढाते हो कहर इस कदर
आता अज़ाब है
बोलो तेरी अदा का
क्या जवाब है
और उसपे यूँ सिमट के लौट जाना
बस और कुछ नहीं तेरी आदत खराब है

क्यों ना हो सोज़े-दिल
नज़र में आफ़ताब है
है तू इक गज़ल
या पूरी किताब है
मुझको जलाते हो क्यों रफ़्ता-रफ़्ता
बस और कुछ नहीं तेरी आदत खराब है

आए हो किस जहाँ से
क्या कातिल शवाब है
बेचैनी को बढाता
तेरा हिज़ाब है
रुख को छिपाते हो नज़रों से हमारी
बस और कुछ नहीं तेरी आदत खराब है

तु सच में है इक आतिश
या कोई आब है
या मेरी निगाहों में
उतरा सराब है
जो भी है तू पर एक सुनहरा ख्वाब है
बस और कुछ नहीं तेरी आदत खराब है

बस और कुछ नहीं तेरी आदत खराब है

माहताब--चाँद
रिन्द--शराबी
मुकाबिल होना--सामना करना
अजाब--बड़ी विपदा
आफ़ताब--सूरज़
रफ़्ता--धीरे
हिज़ाब--परदा(चेहरे पर पड़ा हुआ)
रुख--चेहरा
आतिश--आग
आब--पानी
सऱाब--मरीचिका




teri aadat kharab ...

Saturday, September 8, 2007

साहिरी



आज़ एक नया प्रयोग करना चाहा-कुछ गज़ल और शेर जो अक्सर मेरे सामने तैरते
रहत थे,उन्हे सोचकर और उनकी भावनाओं को लेकर लिखा।
शब्द उधार के हैं,और मैं इन्हें कुछ शेरों तक ही पहचानता हूँ।
अगर कहीं लगे की यह प्रयोग (शब्द-प्रयोग)उचित नहीं है,तो कृपया
मार्गदर्शन करेन्गे।फ़िर भी अपनी सीमा तक उनके अर्थ दे रहा हूँ।



बख्त़ बद ये नहीं, कि तू नहीं
तेरे गुलशन में
पर हम नहीं
संगदिल सूखी है तेरी सरज़मी
मेरी आँखों में सिमटी है नमी

मेरे नालों,दफ़न हो जाओ
किसी की नींद उड़ ना जाये कहीं
क्या नया होगा अब रोज़े-ज़ज़ा
रंजो-आज़ार झेले हमने यहीं

जब्र करते हैं तेरे सारे सितम
क्या है सीखी तुने ऎसी साहिरी
भूल ना पाऊँ और सुलगता रहूँ
खवाब में आती है ज़ुल्फ़ें मरमरी

खुदा दिल को ज़रा सुकून दे
कब तलक सहूँ ये सोज-े आज़री
शमां तू तो जले बस स़हर तक
तेरी मेरी कैसे होगी सरवरी

बख्त़-बद---बुरा वक्त
संग---पत्थर
नाला--आवाज़,पुकार
रोज़े-ज़ज़ा---कयामत के दिन
रन्ज़ो-आज़ार--दुख और कष्ट
ज़ब्र-सहन
साहिरी-जादूगर
सोज़े-आज़री--आग की जलन
सरवरी---बराबरी


saahiri.mp3