Saturday, September 22, 2007

डायरी के पन्ने:जनवरी 06

अक्सर हम ऐसे दौर से गुज़रते हैं जब पता ही नहीं चलता कि
हमारे साथ और दुनिया के साथ क्या हो रहा है, और क्यों हो
रहा है? अभी अपनी डायरी खोल कर देखा तो कुछ ऐसे ही लम्हें
यहाँ सिमटे पडे़ थेये सब १९ महीने पहले लिखी गयी है और कुछ
लाइनें मैंने किस तात्कालिक मानसिक अवस्था में लिखा है--अभी
पकड़ नहीं पा रहा हूँफ़िर भी यह अस्पष्टता काफ़ी कुछ कहती है
मुझसे और मेरे सामने एक दौर जिन्दा हो जाता हैआपसे भी
उस वक्त को बाँट रहा हूँ-------

३० जनवरी ०६,माघ प्रतिपदा,शहीद दिवस।
कुछ दिन भूलने योग्य नहीं होते।अनायास ही जब कभी इन दिनों के बारे
में सोचता हूँ तो किसी संस्मरण के गुजरने सी खुशी होते है।जैसे यादों से
होकर गुज़रा हूँ।बचपन में इस तरह के काफ़ी महत्वपूर्ण दिवस रटे थे,
उनमें से जो याद हैं वे मन में कभी-कभी गूँजते रहते हैं।बैठे-बैठे मैने
इन्हें मोबाइल फोन में सर्च किया।कुछ घटनायें इतिहास से उभरी और
मैंने तटस्थ होकर उन्हें देखा,अख़बार पढ़ने की तरह-क्षणिक आवेग,
उत्साह,क्षोभ और दु:ख के साथ।जैसी भी भावना इन्हें पढ़कर जागती हो।

३० जनवरी,सोमवार।अगले रविवार कोचिंग का टेस्ट है।कल ही मैंने
syllabus को देखकर प्लानिंग कर लिया है कि उन्हें कैसे पढ़ना
है,उत्तर देना है और अभ्यास करना है।मैं अपनेआप को तैयार कर रहा
हूँ।टेस्ट तात्कालिक लक्ष्य बन गया है।छोटी-छोटी सफलतायें आगे
सहयोग देती हैं।
कल ही फोन किया था।डोलू(यह उसका घर का पुकारु
नाम है) के दादाजी की तबीयत खराब है तो वे लोग उनके पास घर
पर आये हुए हैं।थोड़ा दु:ख होता है पर वो छोटी खुशी को दबा नहीं
पाता।किसी ऊँचे स्तर पर मेरी संवेदना जुड़ नहीं पाती।व्यक्तिगत से
परे थोड़ा सामाजिक स्तर पर सोचता हूँ कि क्या समय रहते इस
कष्ट को टाला नहीं जा सकता?इस स्थिति को अपने उपर सोचकर
सिहर उठता हूँ।एक अच्छा सफल आदमी और ऐसा कष्ट।अपने भविष्य
को लेकर डर लगता है।
अक्सर सोचता हूँ हमारी पीढ़ी अभी काफ़ी मस्त है।शायद यह सदियों
से होता आया है और यह दौर ही मस्ती का है।ईश्वर को धन्यवाद दूँ या
शिकायत करुँ,ऊहापोह में रहता हूँ।केन्द्र में क्या होना चाहिए यह पता
नहीं चलता है।शायद लोग बंधनमुक्त होकर सोचते हैं और उन्हें यह
जुमला दिख जाता है--चार दिन की ज़िंदगी,और एक आंतरिक प्रेरणा
होती है इसे भरपूर जीने की-तो हम जीते हैं।खुशी अपनी होती है ,बाकी
दूसरे होते हैं।दूसरों का दु:ख कोई लेना नहीं चाहता।दूसरों की खुशी से
तो प्रभावित हम जरूर होते हैं।यह प्रभाव तनाव , ईर्ष्या और आह में हो
या फ़िर कुछ विधायक लक्षणों में।हाँ, कुछ करने की चाह भी आती है।
लेकिन इस तरह कैसे रहा जा सकता है--सुरक्षा की दीवारों के बीच ही
हम गम को भुला पाते हैं और ज़िंदगी की परवाह नहीं करते। ये दीवारें,
ये हमारे बड़े लोग ही हमें इस सुरक्षा को महसूस कराने के कारक हैं।

शायद मेरे विचार स्थितिजन्य झुँझलाहट में बेहूदा तरीके से निकल रहे है।

2 comments:

Udan Tashtari said...

इतनी बहती हुई सोच निकली है, आप अन्यथा क्यूँ सोच रहे हैं. ऐसे ही जारी रखें. आपकी सोच गहरी है और लेखनी धनी है. शुभकामनायें.

मीनाक्षी said...

आपकी टिप्पणी में व्याख्या पढ़कर अनायास ही आपको पढ़ने का दिल चाहा. कविता तो प्रभावशाली है ही लेकिन आपका गद्य दिल मे उतर जाता है. डायरी लिखना फिर से शुरु करें. शुभकामनाएँ