Monday, September 24, 2007

हश्र

कैसी जगह बनी है ज़ेरे-आसमां
सिसकियाँ आठ पहर उठा करती है
कैसा कफ़स जो साथ मेरे चलता है
नसीम छोड़कर रस्ता मेरा गुजरता है

इस आसमान के नीचे यह कैसी जगह बनायी गयी है जहाँ हर पल सिसकियाँ ही सुनाई पड़ती है।एक कैद है जो हरपल मेरे साथ लगा रहता है,साथ चला करता है।और ये हवायें भी मेरा रास्ता छोड़कर गुज़रती हैं।

कुछ सिलवटें उभरी हैं पेशानी पे
कुछ करवटों का निशां है नज़र में
कुछ हसरतें चाक हुई हैं अभी
कुछ गर्द से फैले हैं सफ़र में

हालात बयां होते हैं पेशानी पर पडी़ सिलवटों से,नज़रों में कुछ है जो रात की करवटों का फ़साना कह रही हैं।और इसी बेचैनी में कुछ इच्छाएँ घुट गयी हैं।सफ़र में धूल सा बिछ गया है।

और यह गुबार-नज़र का धुन्ध
दिखती नहीं है कोई मंज़िल
भटकता जा रहा बदमस्त होकर
मँझधार में पाने को साहिल

और रास्ते पर फैला यह धूल का गुबार जो नज़रों में धुन्ध बना रहा है।इस धुन्ध में कोई मंज़िल नहीं दिखती और राही ना जाने मस्ती में कहाँ चला जा रहा है।

हमारे हश्र को अब कौन पूछे
ता-स़हर है उम्रे-शमां
दामे-ज़िन्दगी से हम छूटे
गुज़रता जा रहा है कारवां

अब क्या अंत हो? हमारे अंत की ख़बर कौन लेगा?यूँ भी शमां की उम्र सवेरा होने तक ही होती है।अगर हम ज़िंदगी की कैद से छूट भी जायें तो भी कारवां को तो बढ़ना ही है।

3 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत सुंदर!!साथ साथ कमेंटरी बहुत अच्छा अंदाज लगा. बधाई.

Anonymous said...

baba ur work is really amazing...keep up the good work and keep writing

महावीर said...

निहायत ख़ूबसूरत।