Sunday, July 27, 2008

आस्था

नयन पोरों  के  अश्रु दग्ध
हृदय ज्वाला सिसकती मंद
निगाहें शून्य में अविचल
जगत में मौन है हरपल

गगन का अनगिनत विस्तार
परंतु व्यर्थ और निस्सार
मन में ऊर्मियों का ज़्वार
अकंपित, मूढ़ यह संसार

पथ पर अंधकार तीव्र
नक्षत्र-रश्मि पड़ी निर्जीव
पथिक के पग में कंपन
परंतु, आँखों में अर्पण

नन्हें जुगनू की झिलमिल
लगी अब गयी मंज़िल
परंतु....और एक छल
युगों से बीते कितने पल

कभी, निज-कल्पना में दृष्ट
कभी,रमणी-नयनों में प्रविष्ट
कभी, बन जाऊँ खुद चंदन
कभी, सुवासित सर्व-भुवन

अभी तक है मिलन की आस
तुम्हारे होने का विश्वास
तुम ही जड़मय चेतनमय
तुम ही ब्रहमाण्ड में,मुझ में.................