Thursday, August 30, 2007

इशारा कर दे



भक्ति और प्रेम (जिसे सामान्यत: लोग प्रेम कहते हैं)दो बिल्कुल अगल सी चीज लगती है ,
अपनी बुद्धि से सोचा जाये तो ये कहीं नहीं मिलते!वस्तुत: यह विषय हृदय के कार्यक्षेत्र में है!
वैसे भक्ति के बारे में यह भी कहा गया है कि-
वासना जब उपासना बन जाये तो उसे भक्ति कहते हैं
कभी जब आप रूमानी होकर किसी को याद करते हैं तो कुछ ऎसी ही अस्पष्ट
स्थिति होती है !लिखते वक़्त भी मुझे लगा की कहीं उस ईश्वरीय सत्ता को तो नहीं पुकार रहा हूँ?
भक्ति पथ कहता भी है कि हम इस संसार मे आकर भी भगवान को भुला नहीं पाते-सारे भौतिकवादी
ऐश्वर्य को पाने कि हमारी लालसा वस्तुत: उसी परम तत्व से साक्षात्कार की चरम इच्छा है !
हम यहाँ आकर उस सुख को भौतिक साधनों मे ढूंढते हैं!
जो भी हो ये हल्का आभास तो हमेशा होता है कि अभी मेरी पुकार शून्य मे उसी सत्ता को खोज रही है!





बशर-आदमी,इतिहास में बशर का जिक्र है
सदा-आवाज
शब-रात
सहर-सुबह
रक्से़-शरारा- बिज़ली का नृत्य

ishara kar de-prab...

Saturday, August 25, 2007

ये मेरी नज़र भी परीशां बहुत है



क्या बताऊँ,कैसे कहूँ,बस तेरा दीदार करता रहा और कुछ सोचता रहा!
वक़्त थमकर मुझे देखता रहा और मुस्कुराता रहा
कभी बेचैनी कभी ख़ुशी कभी तैरती मुस्कराहट कभी बिखरती खुशबू
और उसपर कभी चंचल कभी थमी हुई मेरी नज़र
माना कि ये एक दूसरी दुनिया है पर कुछ देर मैंने इस जहाँ कि भी सैर कर ली
कुछ छुपाना नहीं चाहता इसीलिये जो भी भाव आते गए उसे कागज़ पर उतारता रहा
सब एक साँस में लिखी गयी है और पुन: संपादन नहीं किया गया है!

तो आप भी कुछ पल इस सैर में हमसफ़र हो लें-


ये मेरी
नज़र भी परीशां बहुत है
ये मेरी नज़र भी परीशां बहुत है

आँचल ढलककर ना छेड उनको
शाने तू ज़ुल्फ़ों से खेला ना
कर
वो रुखसार पर चमके
पसीने
वो परी-रु परीशां बहुत
है
ये मेरी नज़र भी परीशां बहुत है
ये मेरी नज़र भी परीशां बहुत है

पीते हैं आँखों से साकी की आँखें
ये सोयी सी आँखें परीशां बहुत है
भेजा है किसने बनाकर ये शोला
जल-जल के हम परीशां बहुत हैं
ये मेरी नज़र भी परीशां बहुत है

किस अदा से है बिखरी लबों पे हँसी
कुछ निकले तरन्नुम बढी
मयकशी
इस बिखरे शबाब को निगाहों से
चुनना
ये दिल अब हमारा परीशां बहुत
है
ये मेरी नज़र भी परीशां बहुत है

क्या कह दूँ तुझे आगाज़े-कयामत
बहुत बेखबर हो बताऊँ क्या हालत
खोयी हैं नींदें खुद का है होश
फ़लक पे सितारे सुहाने बहुत हैं
ये
मेरी नज़र भी परीशां बहुत है
ये मेरी नज़र भी परीशां बहुत है

Friday, August 24, 2007

तमन्ना


तमन्ना!जाने कितनी सारी हैं,कुछ पूरी होतीं हैं और कुछ खार बनकर चुभती रहती हैं।तमन्ना जो इस दिल से रिसती रहती है।तमन्ना जो हमेशा मचलती रहती है।
(
जगजीत सिंह की एक गज़ल जो अक्सर गूंजती रहती है -तमन्ना फ़िर मचल जाये अगर तुम मिलने जाओ)
पर
मुझे किससे मिलना है-किसी से नहीं,फ़िर भी बेताबियाँ तो हैं ही।
और
जब कुछ ख्वाहिशें पूरी ना हो-ख्वाहिशें जो केवल आनंदधर्मिता के लिये हो,जिनपर हमारा काफ़ी कुछ निर्भर करता हो,फ़कत ख्वाहिश नहीं बल्कि जो जरूरत बन चुकी हो।तो फ़िर ऐसे में किसे कसूरवार ठहरायें,कुछ चीजों के लिये कोई कसूरवार नहीं होता,फ़िर उसी गुमनाम कसूरवार(शायद तकदीर या शायद मैं)के नाम कुछ शिकायत करके कुछ तो हल्का हो लूँ।

सितमगर बने कितना भी जहाँ
तेरे सितम से कब हो मुकाबिल

ज़ुल्मत में भी हो तेरा दीदार
हमारी हर खुशी के तुम हो कातिल

फ़ानी जहाँ में आए हम क्यों
हमारी हसरतों का क्या है हासिल

उम्र गुजरी खूने-तमन्ना में
हुआ हूँ मैं या तुम हो कातिल

कहाँ हम ढूँढें दिल पुरआरज़ू को
बना है आशियां सहरा--साहिल

फ़कत कुछ साँस खार में चुभी है
मेरे अरमानों के तुम हो कातिल


मुकाबिल -तुलना करने के अर्थ में
ज़ुल्मत -अँधेरा

फ़ानी जहाँ -नश्वर संसार

खूने-तमन्ना - इच्छाओं का दमन

दिल पुरआरजू -इच्छाओं से भरा ह्रदय

सहरा-ओ-साहिल - वीराना और किनारा

खार - काँटा


tamanna commentary...

बेखुदी



एक शायरी पढी थी-
जैसे
बिजली के चमकने से किसी की सुध जाए
बेखुदी
आयी अचानक तेरे आने से
खैर
यहाँ तो ये स्पष्ट है कि बेखुदी क्यों आयी,पर ऐसे हालत में क्या हो जब कारण नहीं दिख रहा हो?मन कुच सोच कर चंचल हो उठता है।कुछ भी कहने लगता है,सुरूर सा चढ आता है।
हर
पत्ते,हर साँस में नशा सा छा जाता है।कुछ दिखता नहीं,कुछ सुनाई नहीं देता।
पर
,कहीं से अस्पष्ट सी आवाज़ आती रहती है-मन गाता रहता है।

दीदार से महरुम हूँ ,कुछ आता नहीं नज़र
ये
सियाह-रात ज़ुल्फ़ों से बिखराया किसने

कुछ जम गया है सीने में चलता नहीं नफ़स
सबा
में जामे-तबस्सुम फैलाया किसने

रुक-रुक के घिर आती है यह कैसी बेखुदी
नन्हें
चाँद को अर्श पर बिठलाया किसने

तसव्वुर में आने लगी है सदा--बुलबुल
कौन
सैय्याद है ये जाल बिछाया किसने


सियाह
-रात - काली रात
नफस -साँस
अर्श-आसमान
तसव्वुर -कल्पना ,ख्वाब

सदा-ए-बुलबुल -बुलबुल की आवाज़

सैय्याद-शिकारी

Saturday, August 18, 2007

दीप मेरे दीप्ति तेरी ज्यों सुलगता स्वप्न



दीप मेरे दीप्ति तेरी ज्यों सुलगता स्वप्न
तेल है आहों की सिलवट
कसमसाती कोई हसरत
दे रहा है कौन आहट
क्या मची है छटपटाहट
साँसों कि है सुगबुगाहट
कौन देगा मुझको राहत
ना रुका यह दग्ध हृदय कितना भी किया यत्न
दीप मेरे दीप्ति तेरी ज्यों सुलगता स्वप्न
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क्या सोचती आकाशगंगा दृष्टि है मुझपर टिकाए
देखो कौन डगमगाए
खुद में ही क्यों मुस्कुराए
रात क्यों अपनी जगाए
होठों में क्या बुदबुदाए
अपनी धुन में बढ़ता जाए
ख्वाब आँखों में टिकाए
यूँ ही झूँमू ,गीत गाऊं, क्या मिल है रत्न ?
दीप मेरे दीप्ति तेरी ज्यों सुलगता स्वप्न
अब क्या करूं ऎसी ही आवाज अंतर्मन में गूँज रही है ,वही अनुगूँज शब्दों में ढालने कि कोशिश कर रहा हूँ
एक बेचैनी आपसे बाँट रहा हूँ ,कितना सफल हो सका यह प्रश्न शायद प्रासंगिक नहीं है

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Thursday, August 16, 2007

हवायें मुझसे ये क्या पूछती है?



आज ना जाने किन खयालों में डूब गया।कुछ भी कहीं-कहीं से टुकडों में आते गये और मैं
उन्हें इस तरह समेटता रहा।बाँधने की कोशिश नहीं की ना ही किसी नियम,व्याकरण आदि
की परवाह हुई।



किसी कोने में एक सपना पडा है
हमारी बेकली है अनबुझी सी
हवायें मुझसे ये क्या पूछती है?

बिखरते रास्तों पर सहमे पत्ते
कदमों में बिखरी लाल माटी
बेवजह उडते ये बादल
लंबे लिप्टस की शोख डाली
युँ झूम के क्या पूछती है?
हवायें मुझसे ये क्या पूछती है?


छलकती आसमां से शोख किरणें
आँखों से कर जाती ठिठोली
अमराइयों में कुछ बोला पपीहा
सुलगती दुपहरी फिर पास आकर
पसीने की कुछ बूँदें गिराकर
इस शोखी से क्या पूछती है?
हवायें मुझसे ये क्या पूछती है?

नज़र आये फ़लक पर श्याम-धारा
लिये है गोद में इक लाल-स्याही
दिखा है साँझ का पहला तारा
मौसम बना है क्या रुमानी
सहलाये आकर थकान सारी
बगिया से आती खुशबू प्यारी
समा के मुझमें ये क्या पूछती है?
हवायें मुझसे ये क्या पूछती है?

मंजिल दिखा दिवा-पथिक को
अब रास्ते पर रजनी सारी
स्वप्न आँखों में उतरते
प्यास ये कैसी जगाते
बिलखे सोम किसकी चाह में
आया है वो भी राह में
मुझे थपथपाकर कौन जाए
मेरी करवटों की ठौर पाए
इतने करीब आकर
है किसकी साँस और क्या पूछती है?
हवायें मुझसे ये क्या पूछती है?

Tuesday, August 14, 2007

15 अगस्त की कुछ यादें



आज फिर एक मौका आया कि अपनी मातृभूमि और इसपर बलिदान होने वालों के बारे में चिन्तन करूँ। वैसे तो
यूँ भी सोचना होता है, पर इन मौकों पर माहौल हमारे साथ होता है और हम एक दिशा में सोच पाते हैं।आज अपनेआप को खंगाल रहा था ,हर लम्हे को याद कर रहा था जो १५ अगस्त और २६ जनवरी के कारण खुशानुमां से और रोमांचकारी हो गए हैं।याद करता हूँ मध्यमा में गुजारा समय जब मैं ,अमित ,शरत देशभक्ति गीतों को गाते रहते थे।अमित के गाने सुनकर लोमहर्षक अनुभव होता था,सच कहूँ तो सारे रोएँ खड़े हो जाते थे।प्राइमरी स्कूल में था तब प्रभातफेरी के लिए भी जाता था।छोटे झण्डे से संतुष्टि तो होती नहीं थी ,तो सारा समय बड़े झण्डे और उसे लगाने के लिए लंबे पतले बांस कि खोज में गुज़रता था।सच कहूँ तो एक प्रतिस्पर्धा हो जाती थी।कोई दर्शन नहीं था पर काफी उत्साह में सबकुछ करता था। इसी तरह N.C.C. में परेड करते हुए गुज़ारे वक़्त याद आते हैं। जब भी काफ़ी खपाया गया या हाथ ऊपर करके चक्कर लगाने को कहा गया तो मन में वन्दे मातरम् कहते हुए चक्कर लगाये।एक सुरूर चढ़ जाता था।N.C.C. गान भी काफ़ी जोश भर जाता था। बारह बज चुके हैं और अभी यहाँ हॉस्टल में भी सभी एक दूसरे को बधाइयाँ दे रहे हैं।उत्साह यहाँ भी है;अपने अलग अंदाज़ में। खैर वो तो देश,काल,परिस्थिति के अनुसार सबकुछ बदलता रहता हैं।बातें तो अभी और भी हैं,इतने में कहाँ कुछ समेट सका।कुछ लोग हैं,फ़िल्में हैं,जयमाला है परेड है और ज़लेबी भी तो!कुछ पंक्तियाँ भी लिखी हैं,इतना पढ़ चुके हैं तो ये भी पढ़ते जाइए:-




रुबरू हो शोरिश या तन्हाईयाँ रवां हो
लम्हा कोई गुज़रे
बस तुम मेरी सदा हो
मेरी खुदी क्या है?
बस तेरा एक दहकां
तुम पासबां हो मेरे,तुम्हीं मेरा जहाँ हो
जो भी है हाले-जुबूं ,जो कुछ है मयस्सर
बस तेरा है फैज़
बढ़ता ये कारवां हो
अपनी खुदी है तुझसे
तुझसे मेरा निशां है
तुझसे बिछड़कर क्या हालत मेरी बयाँ हो?
हर पल करूँ मैं सज़दे तेरे दीवारो-दर को
जिस खाक से बना हूँ
बिखरूं तो वो ही ज़र हो

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Saturday, August 11, 2007

बचपन



आज काफी अलसाया सा पड़ा था कि कुछ बीते लम्हें याद आने लगे ,लम्हे जो कहीँ गहरे बिंधे हुये हैं बस उन्हीं को तलाशता रहा ये तो शनिवार था जो कुछ घंटे भर का फुर्सत पा गया वरना क्या पता इन स्मृतियों में कब लौट पाता आशा है कि आप भी उन लम्हों मे थोरी देर ही सही ,इस बहाने लौट सकेंगे





लो आज फ़लक के जादूगर,मैं बैठा सिंधु की लहरों में
कुछ उतराती-बलखाती सी,विपदा अब आठों प्रहरों में
खुल रही कोई पोटली मेरी,इन निर्मम प्राचीरों में
कुछ आज खनक-सी आती है बरसों की जंजीरों में


प्रभात,ज्योत्सना के शतदल जब मेरी नींदें हरते थे
वातायन से आते सौरभ पुलकित हो बातें करते थे
निशीथ कहीं पर खो जाते उपवन में गिरी बूँदों में
ऐ!शांत निशा के प्रहरी,तुम खो गए किसके छंदों में

मन शांत कभी तुम थे चंचल
रहते हो हरदम क्यों विकल
कभी साँझ कल्पना से नवल
अब शाम गुजरती है समतल



होठों पे लड़ियाँ सजती थी
अब क्यों होठों को खींचता हूँ
कभी खुद ही बगिया खिलती थी
अब सूने गमले सींचता हूँ


ऐ लू में लिपटी दुपहरी,जरा देख तू अपना हर कोना
कहीं कटकर फँसा हूँ तुझमें,इस भाग को तुम मत खोना
ओ नीम तेरी शाखाओं पे अटका है कोई,झूलना नहीं
इन तेज़ हवाओं के संग-संग बिखर जाऊँ तो भूलना नहीं

वो चिकनी अमरूदी डाली
मक्के की मूँछे काली
कच्चे अनार पर उभरी लाली
अँगूर लता कुछ मतवाली

अनमोल स्मृतियाँ सिमटी हैं कुछ बीते चैत महीनों में
सुबह बसंती और घूमना मौज भरे सफीनों में
तरल रिसती उषा-किरणें और सुनहरी गेहूँ बाली
खेतों की पगडंडी पर अलसाई अलसी मतवाली

कुछ रोते गीत भी हँसते थे
अब सारे गीत हैं बिलख रहे
इस रोशन सी रजनी में
हम धीरे-धीरे सुलग रहे
प्रवाह समय का होता है या हम ही इसपर फिसल चले
किस मद को पाने की खातिर हम इन राहों से सँभल चले

bachapan 2.mp3

Wednesday, August 8, 2007

वो








ये और भी बढ़ाया जा सकता है,संभावना छोड़ भी रहा हूँ। पर,ये सब एक सुरुर में किसी शब्दचित्र की तरह उतारा गया है। किसी तसव्वुर में खोने की जरूरत ही नहीं पड़ी और, जितनी देर का साथ रहा उतनी देर में इतना ही लिख पाया।
आँचल
ऐ सबा छेड़ ना उनका आँचल
हमारे दिल में मची है हलचल
शाने से है ढ़लता पलपल
ऐ लहू जिगर के जलता चल
ज़ुल्फ़ें

ज़ुल्फ़ें उड़ती आवारा सी
लगे नदी की धारा सी
अब दिल का क्या इलाज़ करूँ
वो दिखती एक शरारा सी
आँखें
आँखें किसको ढूँढ़े हमदम
टिक जाती है मुझपर हरदम
धड़कन ये बढ़ती जाती है
कहीं निकल न जाये दम
होठ
होठों को ले जब दाँत तले
आँखों में मेरी शाम ढ़ले
फड़के कुछ ऐसे जब बोले
अब दिल को राहत कहाँ मिले
आवाज़
बोली झंकृत सितार सी
मुस्कान है एक कटार सी
सब हार-हार मैं फिर हारा
वो लगे गले के हार सी
भौं
अब्रू की धार ऐसी क़ातिल
नन्ही बिंदिया में खोया दिल
रुख पर तने हैं पहरेदार
अब कहाँ सुकूं ?बस है मुश्क़िल

तुम कौन ?




प्रसंग कुछ खास नहीं है , कुछ भावनाएँ हैं जो सबके हॄदय तरंगों को झंकृत करती है।मैं कुछ खास नहीं, ना ही ये व्यथा नयी है।फ़िर भी इस अभिव्यक्ति को मेरी नज़र से देखें।


हो कौन तरु की छाया सी मेरे प्रदाह का भार लिए
इस मौन-प्रेम का हार लिए,मधु की शीतल धार लिए



आवरित वदन,शोभित बदन-ये बिखरा बिखरा सा चंदन

छा रहा मधु का जीवन- धन ,मैं भूल गया रुदन-क्रन्दन



किसने छेड़ी ये सुर-लहरी ,अलसाये मेरे चेतना-प्रहरी
खोया मैं मत्त पहाडों में ,निंदिया छाई है जादूभरी



और उसी नीरव उपत्यका में,विस्मृत तुझे मैं ढूँढ़ रहा

ये आँखमिचौली है कैसी ,कब से कारण मैं ढूँढ रहा



हो कौन तरु की छाया सी मेरे प्रदाह का भार लिए
इस मौन-प्रेम का हार लिए,मधु की शीतल धार लिए



आगमन कभी लतिका-कुंज से,कभी लगे बरसने मेघों से
कभी फेनिल लहरों पर आए,कभी आँखों के अश्रुकण से



छलता जाता मैं बारम्बार बिलखा फिर से हृदय-उद्गार
आता-जाता यह कैसा ज्वार,सीने में बिंधा है किसका खार


तारक-कानन में दूर बैठ ,यूँ कौन है मुझसे खेल रही
सुप्त-तरल-चेतना-तरणी,किसके बाणों को झेल रही


हो कौन तरु की छाया सी मेरे प्रदाह का भार लिए
इस मौन-प्रेम का हार लिए,मधु की शीतल धार लिए

tum kaun.mp3

Wednesday, August 1, 2007

कल रात







बस ये रात है और मैं हूँ ,कुछ हवाएं हैं -कुछ मेरे नफस हैं,कुछ चुप्पी सितारों में है -कुछ हम भी खामोश हैं ,बस अभी लिखी है और आपको प्रस्तुत कर रहा हूँ।



स़हर खामोश सरका था,शब भी गूंगी थी
सामने था ख्वाब, निगाहें उनपर टँगी थी



सोहबत में फ़रिश्तों के, गुज़रा था इक जहाँ
कुछ पल थे अभी गुज़रे,वो पल हैँ अब कहाँ

बनकर मेरी हमदम ,गुजरी थी वो सबा
कहाँ फैलाया निकहत को,मिलता नहीं निशां



उलझे थे मेरे अश्क़,साँसे भी उलझी थी
मेरे दिल में घर बनाकर,इक टीस उलझी थी



खुदा तुम क्यों बनाते हो टूटे हुए नगमें
शाखे-गुल पर काँटे,टूटे हुए सपने

तुम्हारा है ज़हाँ सारा,था मेरा भी आशियां
कबतक मैं समेटूँ ,ये बिखरे हुये तिनके



ठंढ़ी आग की बस्ती में,कल रोती शबनम थी
मेरे साथ में वो रोयी,वो मेरी हमदम थी