Wednesday, August 8, 2007

वो








ये और भी बढ़ाया जा सकता है,संभावना छोड़ भी रहा हूँ। पर,ये सब एक सुरुर में किसी शब्दचित्र की तरह उतारा गया है। किसी तसव्वुर में खोने की जरूरत ही नहीं पड़ी और, जितनी देर का साथ रहा उतनी देर में इतना ही लिख पाया।
आँचल
ऐ सबा छेड़ ना उनका आँचल
हमारे दिल में मची है हलचल
शाने से है ढ़लता पलपल
ऐ लहू जिगर के जलता चल
ज़ुल्फ़ें

ज़ुल्फ़ें उड़ती आवारा सी
लगे नदी की धारा सी
अब दिल का क्या इलाज़ करूँ
वो दिखती एक शरारा सी
आँखें
आँखें किसको ढूँढ़े हमदम
टिक जाती है मुझपर हरदम
धड़कन ये बढ़ती जाती है
कहीं निकल न जाये दम
होठ
होठों को ले जब दाँत तले
आँखों में मेरी शाम ढ़ले
फड़के कुछ ऐसे जब बोले
अब दिल को राहत कहाँ मिले
आवाज़
बोली झंकृत सितार सी
मुस्कान है एक कटार सी
सब हार-हार मैं फिर हारा
वो लगे गले के हार सी
भौं
अब्रू की धार ऐसी क़ातिल
नन्ही बिंदिया में खोया दिल
रुख पर तने हैं पहरेदार
अब कहाँ सुकूं ?बस है मुश्क़िल

1 comment:

Rahul Priyedarshi said...

all i can say is i understand mate!
was myself infatuated by the described person's extremely sophisticated exquisiteness ..