Saturday, August 18, 2007

दीप मेरे दीप्ति तेरी ज्यों सुलगता स्वप्न



दीप मेरे दीप्ति तेरी ज्यों सुलगता स्वप्न
तेल है आहों की सिलवट
कसमसाती कोई हसरत
दे रहा है कौन आहट
क्या मची है छटपटाहट
साँसों कि है सुगबुगाहट
कौन देगा मुझको राहत
ना रुका यह दग्ध हृदय कितना भी किया यत्न
दीप मेरे दीप्ति तेरी ज्यों सुलगता स्वप्न
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क्या सोचती आकाशगंगा दृष्टि है मुझपर टिकाए
देखो कौन डगमगाए
खुद में ही क्यों मुस्कुराए
रात क्यों अपनी जगाए
होठों में क्या बुदबुदाए
अपनी धुन में बढ़ता जाए
ख्वाब आँखों में टिकाए
यूँ ही झूँमू ,गीत गाऊं, क्या मिल है रत्न ?
दीप मेरे दीप्ति तेरी ज्यों सुलगता स्वप्न
अब क्या करूं ऎसी ही आवाज अंतर्मन में गूँज रही है ,वही अनुगूँज शब्दों में ढालने कि कोशिश कर रहा हूँ
एक बेचैनी आपसे बाँट रहा हूँ ,कितना सफल हो सका यह प्रश्न शायद प्रासंगिक नहीं है

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3 comments:

Rahul Priyedarshi said...

deepak and baati have been a prop used by poets cutting across ages. It is the coupling of strange vulnerability with striking perseverance, that makes the flickering flame of a deepak so appealing.
nice post

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया प्रयास है, बधाई. लिखते रहें.

ghughutibasuti said...

कविता अच्छी लगी । आशा है आपका लिखा और भी पढ़ने को मिलेगा ।
घुघूती बासूती