Saturday, August 11, 2007

बचपन



आज काफी अलसाया सा पड़ा था कि कुछ बीते लम्हें याद आने लगे ,लम्हे जो कहीँ गहरे बिंधे हुये हैं बस उन्हीं को तलाशता रहा ये तो शनिवार था जो कुछ घंटे भर का फुर्सत पा गया वरना क्या पता इन स्मृतियों में कब लौट पाता आशा है कि आप भी उन लम्हों मे थोरी देर ही सही ,इस बहाने लौट सकेंगे





लो आज फ़लक के जादूगर,मैं बैठा सिंधु की लहरों में
कुछ उतराती-बलखाती सी,विपदा अब आठों प्रहरों में
खुल रही कोई पोटली मेरी,इन निर्मम प्राचीरों में
कुछ आज खनक-सी आती है बरसों की जंजीरों में


प्रभात,ज्योत्सना के शतदल जब मेरी नींदें हरते थे
वातायन से आते सौरभ पुलकित हो बातें करते थे
निशीथ कहीं पर खो जाते उपवन में गिरी बूँदों में
ऐ!शांत निशा के प्रहरी,तुम खो गए किसके छंदों में

मन शांत कभी तुम थे चंचल
रहते हो हरदम क्यों विकल
कभी साँझ कल्पना से नवल
अब शाम गुजरती है समतल



होठों पे लड़ियाँ सजती थी
अब क्यों होठों को खींचता हूँ
कभी खुद ही बगिया खिलती थी
अब सूने गमले सींचता हूँ


ऐ लू में लिपटी दुपहरी,जरा देख तू अपना हर कोना
कहीं कटकर फँसा हूँ तुझमें,इस भाग को तुम मत खोना
ओ नीम तेरी शाखाओं पे अटका है कोई,झूलना नहीं
इन तेज़ हवाओं के संग-संग बिखर जाऊँ तो भूलना नहीं

वो चिकनी अमरूदी डाली
मक्के की मूँछे काली
कच्चे अनार पर उभरी लाली
अँगूर लता कुछ मतवाली

अनमोल स्मृतियाँ सिमटी हैं कुछ बीते चैत महीनों में
सुबह बसंती और घूमना मौज भरे सफीनों में
तरल रिसती उषा-किरणें और सुनहरी गेहूँ बाली
खेतों की पगडंडी पर अलसाई अलसी मतवाली

कुछ रोते गीत भी हँसते थे
अब सारे गीत हैं बिलख रहे
इस रोशन सी रजनी में
हम धीरे-धीरे सुलग रहे
प्रवाह समय का होता है या हम ही इसपर फिसल चले
किस मद को पाने की खातिर हम इन राहों से सँभल चले

bachapan 2.mp3

4 comments:

Divine India said...

अतिसुंदर-अतिसुंदर्…।
कुछ भी नहीं कहा जा सकता इस चंचल निर्दोष बचपन पर लिखी आपकी रचना पर … वाकई एक तस्वीर खींच गई बचपन की पढ़ते हुए…। बधाई स्वीकारे॥

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर कविता लिखी है ।
घुघूती बासूती

Rahul Priyedarshi said...

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Going by the nature of ur posts , a sober layout would be most suitable for ur blog.These cric info and clock links really give a casual air to the whole setting.

Aakash said...

bhokal!!