Thursday, August 16, 2007

हवायें मुझसे ये क्या पूछती है?



आज ना जाने किन खयालों में डूब गया।कुछ भी कहीं-कहीं से टुकडों में आते गये और मैं
उन्हें इस तरह समेटता रहा।बाँधने की कोशिश नहीं की ना ही किसी नियम,व्याकरण आदि
की परवाह हुई।



किसी कोने में एक सपना पडा है
हमारी बेकली है अनबुझी सी
हवायें मुझसे ये क्या पूछती है?

बिखरते रास्तों पर सहमे पत्ते
कदमों में बिखरी लाल माटी
बेवजह उडते ये बादल
लंबे लिप्टस की शोख डाली
युँ झूम के क्या पूछती है?
हवायें मुझसे ये क्या पूछती है?


छलकती आसमां से शोख किरणें
आँखों से कर जाती ठिठोली
अमराइयों में कुछ बोला पपीहा
सुलगती दुपहरी फिर पास आकर
पसीने की कुछ बूँदें गिराकर
इस शोखी से क्या पूछती है?
हवायें मुझसे ये क्या पूछती है?

नज़र आये फ़लक पर श्याम-धारा
लिये है गोद में इक लाल-स्याही
दिखा है साँझ का पहला तारा
मौसम बना है क्या रुमानी
सहलाये आकर थकान सारी
बगिया से आती खुशबू प्यारी
समा के मुझमें ये क्या पूछती है?
हवायें मुझसे ये क्या पूछती है?

मंजिल दिखा दिवा-पथिक को
अब रास्ते पर रजनी सारी
स्वप्न आँखों में उतरते
प्यास ये कैसी जगाते
बिलखे सोम किसकी चाह में
आया है वो भी राह में
मुझे थपथपाकर कौन जाए
मेरी करवटों की ठौर पाए
इतने करीब आकर
है किसकी साँस और क्या पूछती है?
हवायें मुझसे ये क्या पूछती है?

2 comments:

Rahul Priyedarshi said...

"the answer my friend is blowing in the wind"

परमजीत सिहँ बाली said...

आप के कवि मन ने बहुत बढिया उड़ान भरी है।बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।


किसी कोने में एक सपना पडा है
हमारी बेकली है अनबुझी सी
हवायें मुझसे ये क्या पूछती है?