आह!!!! जब भी ये हवायें बेचैन होकर ठण्ड के आगमन का संदेश देती हैं।जब भी पेड़ों के पत्ते पीले पड़ने लगते हैं।धूप निखरी होती है और आसमान का नीलापन आँखों में नहीं चुभता।सुबह अलसाने लगती है और शाम जल्द ही शरमाकर रात की आगोश में चली जाती है।सड़क पर कुछ लोग अपने पहनावे से जोर देकर कहते हैं कि जल्द ही ठिठुरना होगा।यूनिवर्सिटी की कुछ कन्यायें ज्यादा वस्त्रों में आकर भारतीयता का आभास कराती हैं।कैंटीन में हर समय चाय बनने लगती है और कुछ लोग लगातार सिगरेट फूँकने लगते हैं।यहाँ हॉस्टल में लोग नोट्स जेरॉक्स करवाने लगते हैं।इस भागमभाग की बेला में यह अहसास होता है कि परीक्षा की घड़ी आ गयी है।
वैसे तो कई बरसों से हमारा सामना होता रहा है।कोचिंग के दिनों में तो हम हमेशा मिला करते थे।यहाँ भी क्लास टेस्ट का नियम है तो लगातार मिलना होता है।ऐसे मिलने से प्रेम बढ़ना चाहिये था और परस्पर सौहार्द की भावना भी आनी थी।परंतु भगवान ने सबको एक सा नहीं बनाया है,हम तो एक दूसरे के प्रति निष्क्रिय होते गये और उसका बहुत बुरा परिणाम निकला।इस कारण हमें फिर से भी मिलना पड़ा।अक्सर हम एक दूसरे के प्रति रूखे ही रहे और केवल औपचारिकता निभाते रहे।इस बीच ऐसी भी परिस्थिति आयी कि मुझे मजबूरन अपना प्रेम बढाना पड़ा।और वही स्थिति फिर से लौट चुकी है।पता नहीं चलता पर लगता है कि हमारा यह संबंध आजन्म तो है ही,आमरण भी रहेगा क्या?जिस व्यवस्था का अंग बन चुका हूँ उसमें तो इसी तरह पार पाना है।
कभी-कभी ऐसी भी परिस्थिति आयी है कि हम कुछ दोस्त मिलकर परीक्षा जैसी चीज के ईजाद करनेवालों को कोसते थे।पर कहाँ तक हम अपने अपराधी चुनें?हर युग में अलग-अलग किस्म की परीक्षा होती रही है।कभी अप्सरायें तपस्वी की परीक्षा लेतीं थी तो कभी भगवान ही आकर वर देने के पहले परीक्षा ले लेते थे।यक्ष ने तो युधिष्ठिर से पानी पीने के लिये परीक्षा ले ली।अब तो कुछ जगहों पर अलग हवा बहने लगी है पर अभी भी जहाँ हवा पुरानी खिड़कियों से ही आती है, वहाँ बहुत सारी परीक्षा होती है।शादी के मौके पर लड़कियों की परीक्षा सबसे कठिन होती है,मुझे तो सोचने पर ही डर लगता है।लड़के भी परखे जाते है पर कटघरे में लाकर कम ही।बाद में गीत गाया जाता है--
चलनी के चालल दूल्हा ,सूप के फटकल हो........
अब तो दूल्हा शब्द ही दुर्लभ का अपभ्रंश है,मतलब की यह परीक्षा भी बहुत पुरानी है।
यह जो शब्द है यह कहीं भी पीछा नहीं छोड़ता,चाहे आप मस्तानों की टोली में जायें या विचारकों के पास।कहीं आपको यह दिखाकर उत्तीर्ण होना होता है कि आप कितने कमीने हैं और कहीं अपनी बुद्धिजीवी सोच का प्रदर्शन करके।मुझे तो कुछ झुंडों में इसलिये जगह नहीं मिली क्योंकि मैं सिगरेट और गुटखा का साथ नहीं निभा पाया।एक बार तो गाँव के रास्ते पर मैं एक अजनबी से बात करने के अयोग्य ठहरा दिया गया क्योंकि मैंने उसकी दी हुई खैनी नहीं खायी।अब दूसरे टोली में चलिये जहाँ यह जिंदगी ही परीक्षा है।तभी तो बच्चन साहब कहते हैं-
"युग के युवा ,मत देख दायें और बायें"
मतलब परीक्षा तो है ही पर निडर होकर आगे बढ़ जाओ।अब हमें कुछ आत्मज्ञान हो रहा है।कल से प्रायोगिक परीक्षा शुरु है और सप्ताह भर में लिखित भी।अब तो इंटरनेट और ब्लॉग सब से जुदा होने का वक्त आ गया।
तो आपको भी विदा और नये साल की बधाई नये साल में(समझदार को इशारा काफी)।
वैसे तो कई बरसों से हमारा सामना होता रहा है।कोचिंग के दिनों में तो हम हमेशा मिला करते थे।यहाँ भी क्लास टेस्ट का नियम है तो लगातार मिलना होता है।ऐसे मिलने से प्रेम बढ़ना चाहिये था और परस्पर सौहार्द की भावना भी आनी थी।परंतु भगवान ने सबको एक सा नहीं बनाया है,हम तो एक दूसरे के प्रति निष्क्रिय होते गये और उसका बहुत बुरा परिणाम निकला।इस कारण हमें फिर से भी मिलना पड़ा।अक्सर हम एक दूसरे के प्रति रूखे ही रहे और केवल औपचारिकता निभाते रहे।इस बीच ऐसी भी परिस्थिति आयी कि मुझे मजबूरन अपना प्रेम बढाना पड़ा।और वही स्थिति फिर से लौट चुकी है।पता नहीं चलता पर लगता है कि हमारा यह संबंध आजन्म तो है ही,आमरण भी रहेगा क्या?जिस व्यवस्था का अंग बन चुका हूँ उसमें तो इसी तरह पार पाना है।
कभी-कभी ऐसी भी परिस्थिति आयी है कि हम कुछ दोस्त मिलकर परीक्षा जैसी चीज के ईजाद करनेवालों को कोसते थे।पर कहाँ तक हम अपने अपराधी चुनें?हर युग में अलग-अलग किस्म की परीक्षा होती रही है।कभी अप्सरायें तपस्वी की परीक्षा लेतीं थी तो कभी भगवान ही आकर वर देने के पहले परीक्षा ले लेते थे।यक्ष ने तो युधिष्ठिर से पानी पीने के लिये परीक्षा ले ली।अब तो कुछ जगहों पर अलग हवा बहने लगी है पर अभी भी जहाँ हवा पुरानी खिड़कियों से ही आती है, वहाँ बहुत सारी परीक्षा होती है।शादी के मौके पर लड़कियों की परीक्षा सबसे कठिन होती है,मुझे तो सोचने पर ही डर लगता है।लड़के भी परखे जाते है पर कटघरे में लाकर कम ही।बाद में गीत गाया जाता है--
चलनी के चालल दूल्हा ,सूप के फटकल हो........
अब तो दूल्हा शब्द ही दुर्लभ का अपभ्रंश है,मतलब की यह परीक्षा भी बहुत पुरानी है।
यह जो शब्द है यह कहीं भी पीछा नहीं छोड़ता,चाहे आप मस्तानों की टोली में जायें या विचारकों के पास।कहीं आपको यह दिखाकर उत्तीर्ण होना होता है कि आप कितने कमीने हैं और कहीं अपनी बुद्धिजीवी सोच का प्रदर्शन करके।मुझे तो कुछ झुंडों में इसलिये जगह नहीं मिली क्योंकि मैं सिगरेट और गुटखा का साथ नहीं निभा पाया।एक बार तो गाँव के रास्ते पर मैं एक अजनबी से बात करने के अयोग्य ठहरा दिया गया क्योंकि मैंने उसकी दी हुई खैनी नहीं खायी।अब दूसरे टोली में चलिये जहाँ यह जिंदगी ही परीक्षा है।तभी तो बच्चन साहब कहते हैं-
"युग के युवा ,मत देख दायें और बायें"
मतलब परीक्षा तो है ही पर निडर होकर आगे बढ़ जाओ।अब हमें कुछ आत्मज्ञान हो रहा है।कल से प्रायोगिक परीक्षा शुरु है और सप्ताह भर में लिखित भी।अब तो इंटरनेट और ब्लॉग सब से जुदा होने का वक्त आ गया।
तो आपको भी विदा और नये साल की बधाई नये साल में(समझदार को इशारा काफी)।