Sunday, November 11, 2007

तेरी याद में (संस्मरण)

नमन नेतरहाट भूमि

सौम्य,मधुर दिवा निमंत्रण
प्राची-पट पर अरुण चित्रण
गोद में उलझी सी कोयल
प्रात समीर का शांत नर्तन

(कोयल नदी का नाम है)
वृष्टि-व्योम में डूबा मानस
जलधि-हिलोर की आती आहट
सोखता आनंद हृदय-पट
सुधा का रेला है घट-घट

मूर्त होता सारा चिंतन
आकुल धरा पर छाता यौवन
पगडंडियों की विषाद रेखा
इठला उठी आने पर सावन

तम गगन पर हँसते तारक
साक्षी बने हैं मौन दर्शक
किस भाव को ढ़ोते रहे हैं
कितने युगों से शांत वाहक


वहाँ जाने के पहले बचपन बिहार के मैदानी भाग में ही गुजरा था।बोकारो और राँची में भी जिन पठारी भौगोलिक क्षेत्र से गुजरा था,वहाँ के नैसर्गिक वातावरण पर विकास की छाया पहुँच चुकी थी।पर राँची से नेतरहाट पहुँचने के क्रम में ही उन नये भू-खंडों को देखा जो हमेशा के लिए मुझपर एक छाप छोड़ गये।१५० किलोमीटर और ६ घंटों की वह यात्रा ही अपनेआप में एक रोचक संस्मरण है,जिसका रोमांच मेरे सभी साथी अभी भी महसूस करते होंगे।फिर तो कहानियाँ ही कहानियाँ बनने लगी।वहाँ पहुँचने पर पहले सप्ताह ही हम दो साल और पहले महीने में पाँच साल बड़े हो गये।हाँ, पर मेरे कुछ मित्र अभी भी बच्चे हुये हैं(माफ़ करना यार,और किसकी टाँग खींचूँगा?)।



पहले दो चार दिन में ही हमने प्रकृति की अनुपम सुषमा को उसके निष्कपट वेश में देखा।सूर्योदय से सूर्यास्त तक,पगडंडियों से पठार की ढलान तक,वहाँ के मूल आदिवासी लोगों से हमारे बीच के लोग तक;सब दर्शनीय।मुझे तो लगा कि मैं इन पगडंडियों में उलझकर रह जाऊँगा,रास्ते याद ही नहीं रहते थे,कब दिशा परिवर्तन हो जाता पता ही नहीं चलता था।परंतु महीनेभर में ही मैने इसे आत्मसात कर लिया,यह नेतरहाट श्री का आशीर्वाद था।नेतरहाट का हर छात्र और हमारे विद्वान श्रीमान जी(अध्यापकगण) नेतरहाट श्री को वहाँ मौजूद मानते थे-यह मैंने देखा था,मानते हैं-यह मेरा विश्वास है।
सर्वांगीण विकास हेतु वहाँ की दिनचर्या हमें काफी कुछ सिखलाती गयी।अभी यह सोचकर खुद मुझे आश्चर्य होता है कि ९ वर्ष पहले मैं इस तरह की सफाई करता था।अपने आश्रम(hostel) के सफाईकर्ता ,सज़ावटकर्ता सब हम ही थे।खाना परोसने के काम से लेकर थाली धोने का काम हमारा ही था।हर कनीय(junior) और वरीय(senior) छात्र ने पूरे आश्रम की थाली धोयी,इस कारण से कभी अभिमान नहीं आया।
पता नहीं था कि उन सुखद क्षणों को याद करते-करते स्मृतियों की बाढ़ आ जायेगी।पुस्तकालय से लेकर पीटी ग्राउण्ड और सारे खेल मैदानों की याद आ जायेगी।स्काउट,N.C.C. और क्रासकन्टी दौड़ से जुड़ी यादें,जब ये सब करना मजबूरी होती थी और मेरे जैसे खेल से दूर भागनेवालों के लिये परीक्षा की घड़ी होती थी।अंतिम वर्ष(२००१) में १० किलोमीटर ४० मिनट के अंदर दौड़ना था,वो भी पठारों के ऊँचे-नीचे और ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुये।महीने भर से हमारे जैसे काहिल भी practice कर रहे थे,क्योंकि रास्तों का चक्कर लगाकर आना मजबूरी थी।दौड़ शुरु होते ही हम सबसे तेज निकले और oval ground से निकलते ही हमारी दौड़ समाप्त हो गयी।फिर तो हम पैदल ही चक्कर काटकर आये।अभी भी और कुछ नहीं तो चलने की प्रैक्टिस तो है ही।
जितना भी खाली समय गुजरा वो या तो हिन्दी साहित्य पढ़ने में गया या फिर जंगलों के सैर में।यद्यपि जाने की मनाही होती थी फिर भी हम चोरी छुपे निकल लेते थे।दो चार किस्से तो झरनों से भी जुड़े हुये हैं जब परिस्थितियाँ काफ़ी नाजुक हो गयीं थी,सब हमारे adventure करने के चक्कर में।एक fall था जिसे हम ninety degree कहते थे,उसका ढ़लान बिल्कुल खड़ा था।अतिम वर्ष का समय था (सन २००१) और मुझे लगता था कि अब कब इन झरनों में लौट पाऊँगा।मैनें अनित जो मेरे ही वर्ष का है और कपिल जो मेरे बाद के वर्ष का है,इन दोनों के साथ निकल पड़ा।अब वे कोई बने बनाये रास्तों वाले झरने तो थे नहीं,हम उछलते कूदते ढलान उतरते गये।कभी कभी तो इतनी ज्यादा ढाल हो जाती थी कि बिना कुछ पकड़े उतरा नहीं जा सकता था। भीगी हुई चिकनी मिट्टी के घास को ही मुट्ठियों में भींचकर हम अपनी बढ़्ती गति को काबू में कर उतर रहे थे।फिर उजली चट्टानों का दौर शुरु हुआ और हम पानी में ही चट्टानों पर उछलते हुये चलते रहे।बीच -बीच में एक-डेढ़ floor की ऊँचाई के झरने बन जाते और हमें धीरे-धीरे सावधानी से चट्टान पकड़कर उतरना पड़ता।यह भी अपनेआप में मजा था।तीन सालों में कम से कम १० बार तो आ चुका था पर हर समय काफ़ी लड़के रहते थे।झरनों का गूँजता कलकल स्वर कभी ध्यान देने पर बहुत डरावना लगता।साथ ही जंगल में अक्सर भालू देखे जाते थे।छुट्टियों में तो हमारे विद्यालय तक आ जाते थे।फिर भी हम कुछ मस्त टाइप के जीव थे और इस बारे में ज्यादा नहीं सोच रहे थे।२० मिनट तक कूदने-फाँदने के बाद आखिर बड़ा fall आ गया और हमें अब पार्श्व(side) से नीचे उतरना था।उतरकर हमने नहाया, नहाया क्या मस्ती की।झरने का शोर और भी डरावना हो गया था।फिर हमने लौटने की सोची।अचानक मैंने सोचा कि क्यों ना सीधी झरने की खड़ी चट्टानों से ही ऊपर चला जाए।मेरे इस बेवकूफ़ी भरे प्रस्ताव का दोनों ने समर्थन किया।पर उनमें और मुझमें यहाँ बहुत अंतर था।अनित और कपिल ६ फ़ीट के थे और मैं साढ़े पाँच में भी एक इंच कम।दोनों ऊपर चढ़ने लगे और सबसे पीछे मैं।काफ़ी मशक्कत हुई,ना साँप-बिच्छू की सोच रहे थे और ना ही दूसरे जानवरों की।सबसे ऊपर एक २ इंच व्यास(diameter) का एक तना निकला हुआ था,जिसे पकड़कर आखिरी कदम बढ़ाना था।मेरे आगे दोनों ऊपर पहुँच चुके थे।
मैनें हाथ बढ़ाया तो वह मेरी पहुँच से दूर था।मैंने इधर -उधर देखा पर इसके अलावा कोई भी दूसरा रास्ता नज़र नहीं आया,१-२ मिनट उसी तरह अटका रहा।अब ऊपर से दोनों आवाज देने लगे।खड़ी ढ़लान होने के कारण नीचे झाँक नहीं रहे थे।अब मुझे झरने की गूँजती आवाज डराने लगी।मैंने थोड़ा उचककर तने को पकड़ने की कोशिश की तो पैर के नीचे से एक छोटा पत्थर नीचे जा गिरा,मैंने उसे गिरते हुये देखा।अबतक मैं ऊपर ही देख रहा था,नीचे झाँकते ही गहराई डर बनकर दिल में बैठ गयी।दोनों आवाज दिये जा रहे थे,मैने आवाज को सामान्य बनाकर ही कहा कि बिलकुल सही हूँ।नीचे उतरना ऐसे में और भी मुश्किल होता है।मैंने आवेग में उछलकर उस डाली को पकड़ा और ऊपर आ गया।कुछ देर बैठा रहा। सोचता हूँ तो सिहरन होती है।झरने से लौटना बहुत बोरिंग काम है जो करना पड़ता था।चढ़्ते-चढ़ते हम हाँफ जाते थे।
याद कर रहा हूँ तो कितनी ही कहानियाँ सामने आ रही हैं,कहीं कहीं से आ जा रहीं हैं।आज ११ नवंबर है,१५ नवंबर को विद्यालय दिवस है।अभी सारी तैयारियाँ चल रही होंगी,एक स्तरीय नाटक महीने भर में सज चुका होगा,पीटी,प्रदर्शनी,एन सी सी सब कुछ का अभ्यास जोर-शोर से हो रहा होगा।हर हाटियन की तरह मेरे दिल में भी वो समय और वह भूमि हमेशा बसी रहेगी।

4 comments:

मीनाक्षी said...

बहुत रोमांचक संस्मरण और स्वाभाविक वर्णन शैली...

Rahul Priyedarshi said...

"नेतरहाट का हर छात्र और हमारे विद्वान श्रीमान जी(अध्यापकगण) नेतरहाट श्री को वहाँ मौजूद मानते थ"
I hate being wet blanket , but this line was a tad bit hypocritical .
'netarhat shree' was more of a surreal concept.
students never hesitated from climbing on the back of the statue to get photographed

Vikash said...

waah prabhakar...tumn to school ki yaqad dilaa di.

vande he dunder mam sakhaa netarhaat sada.

Raghvendra said...

पढ़ कर बहुत अच्छा लगा.. मन जीवन की उन अनमोल निधियों को फिर से महसूस करने लगा..
नेतरहाट में बिताए पलों की कहानी....थोड़े में ही बहुत कुछ लिख डाला है आपने...