Saturday, August 30, 2008

सुर्ख आँखें हैं तेरी (नज़्म)

एक और तुकबंदी मेरी कलम से,लिखने का मन हुआ और लिख दिया,जैसा भी है प्रस्तुत कर रहा हूँ-----


सुर्ख आँखें हैं तेरी
.... तूने पी कहाँ साकी
जिंदगी ने मुझे मौत का दीवाना कर दिया |

आँखों मे जो देखा
....उस अय्यार के
दिल को तीरे-नजर का निशाना कर दिया |

शोर है फिजाओं में
....सन्नाटे किधर गए
शहर ने मेरे तसव्वुर को वीराना कर दिया |

बहुत नादान थे
....तुझे ढूँढते फिरते थे
गम ने आसमां को तेरा ठिकाना कर दिया |

आह निकली थी
....चुपचाप तेरे ज़ेरे-दामन
खुदाया तूने उसे जहाँ का तराना कर दिया |

चंद आँसू थे
....निकले जो तेरी सोहबत में
खारे पानी को तूने दौलते-जमाना कर दिया |

अबके लगता था
.... तू आयेगी शबे-वस्ल
अज़ल तूने भी आखिर बहाना कर दिया |

Monday, August 25, 2008

हम खो गए तुममें (नज़्म)


न देखो भूलकर भी इक नज़र कि शोखी है इनमें
नशा,यह जाने कैसा भर दिया है इनमें खुदा ने

नजाकत से जो तेरे लब लरजते हैं तो ऐ बुतां
निगाहें खो सी जाती है इठलाते हैं पैमाने

निकम्मी हो गयी हैं ये जो तेरी ज़ुल्फें आवारा
नफ़स है बेकरारी की लगी है साँस अब थमने

नसीहत दो तुम शानों को जरा आहिस्ता झटके
नसों में आये जो तूफ़ान तो हस्ती लगे मिटने


निभा जा रिश्ते ये बेनाम हैं मेरे-तुम्हारे
नाजुक सी है इक डोर कब लग जाए सिमटने

नज़ारा रुख का तेरा जो देखा किया मैंने
नूर बरपा है आलम में तू ही है सब में


नश्तर सा तेरा आबे-हुश्न और अपना सोज़े-दिल
नाला है लब पर औ’ दुआ लख्ते-जिगर में

नादान सी ये शोखी और हम भी हैं नादां
नगमा-ए-खुशी गाते हैं शोरे-कयामत में


नीमबाज़ आँखों में तुम बन आते हो तसव्वुर
नहीं बाकी हमारी हस्ती कहीं हम खो गए तुममें


Wednesday, August 20, 2008

तीन कवितायें

१।

ओ अनजान....
कुछ पल तुझे देखा
और, वो पल गिन लिया मैंने
मेरी यादों की पोटली कुछ और भारी हो गयी
अब रह-रहकर तुझे टटोलूँगा
जब भी सुध खो दूँगा अपनी
तेरी सुध ले लूँगा
और, फिर से वो पल जिंदा हो जायेंगे ..........

२।
वही पुरानी तस्वीर
और तुम देखते हो मुझे
जैसे सदियों से अपलक.....
तुम्हारी आँखें नही थकती?
मैं भी तो जब थक जाता हूँ
तेरी तस्वीर घूरने लगता हूँ
खो जाता हूँ कहीं तेरी तस्वीर में ......

३।
इस चौराहे की मिट्टी अलग सी है
रंग में भी
हमेशा उलट-पुलट
जैसे समय के साथ करवट लेती हो
गर्मियों में धूल बनकर
बारिशों में पोली होकर
सड़क के गड्ढों से झाँकती है
कोई अपनी सी लगती है
आख़िर एक मुद्दत से अपना नाता है...

Tuesday, August 19, 2008

साँसों की सिलवट

उम्मीद तो कर रहा था,पर इतनी आशा नहीं बँधी थी।जितनी देर तक लिखता रहा बारिश ने साथ दिया,एक ताल में,एक सुरलहरी में,एक लहर में मेरे साथ यह बारिश उतराती गयी और अभी भी उसी ताल में वफा निभाते जा रही है।सचमुच आज ठहर गयी है,कहीं अटक गयी है।कोई अवसाद जमा था शायद.... जो अब घुल रहा है।


बारिश,आसमान का रोना
बिना किसी साँसों की सिलवट के
पर कितना व्यापक क्रंदन
सुन रहा हूँ तेरी आहट
पत्तों पर,छत पर,मेरे भीतर
किससे मिलने की है छटपटाहट
एक शांत सा संगीत
खो रहा मेरा अस्तित्व
इस भिनभिनाहट में
तेरी साँसों तले
साँस
.......बिना सिलवट की साँस

कुछ बातें कर लो
कुछ सुख कहो
कुछ दु:ख बाँटो
यूँ अकेले क्या करते हो
रोते हो या हँसते हो
पता नहीं चलता
कितने युगों की यह प्यास
किस पल की यह तलाश
अभी बाकी तुम्हारी आस
और तुम्हारी साँसें चल रही है
साँस
....बिना सिलवट की साँस

खामोशी पसर गयी है
एक वीराना चीख उठा है
समझ सकता हूँ तुम्हारी बेसदा चीख
कानों में भी बजने लगे हैं जलतरंग
शायद कहीं तुम खिड़कियाँ पीट रहे हो
पर तुम तो शांत थे
खामोशी लुटा रहे थे
अपनी जख्मी साँस सहला रहे थे
साँस
....बिना सिलवट की साँस

कहो तो मैं आऊँ
तुम्हारी पनाह में
भिगो लो मुझे अपने संग में
अपने रंग में,सोयी उमंग में
वो तड़प दिखला मुझे
खोयी सी,सोयी सी
बँधा सा,रोया सा,उजड़ा सा
पलकों में रुठा सा
साँसों सा बैठा सा
एक साँस बुझी बुझी सी
साँस
.....बिना सिलवट की साँस

Monday, August 18, 2008

संस्मरण-जुलाई २००५

अँधेरा हो चला है।उम्मीद करता हूँ कि अब ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा।इंतज़ार कितना अच्छा शब्द है?पर इस दुनिया कि यही फ़ितरत है-यहाँ कुछ भी एक सा नहीं रहता,शब्द भी नहीं।देश,काल,परिस्थितिवश सबकुछ बदलता रहता है।आशिकी में इंतज़ार भी प्यारा हो जाता है।मुझे तो आठवीं कक्षा में ’इंतज़ार’ शब्द से प्यार हो गया क्योंकि यह एक शायरी में पसंद आ गया।अब जब भी यह शब्द सामने आता है,वो लाइन खुद ही होठों पर आ जाती है- "कहीं आके मिटा ना दे वो इंतज़ार का लुत्फ़।कहीं कबूल ना हो जाये आज इल्तिज़ा मेरी॥"

     
पर यह कोई सुखद इंतज़ार नहीं था।संभवत: पहली बार मैं दिल्ली स्टेशन पर अकेला था और शाम ढ़लने के बाद ट्रेन आने का इंतज़ार कर रहा था। वक्त के ऐसे फ़ासले अमूमन किसी नोवेल या मैगजीन के साथ काटे जाते हैं।मैंने भी यह तरीका आजमाया करता था-मेरी लगभग शायरी की किताबें किसी ट्रेन के सफ़र में ही खरीदी हुई हैं।पर अफ़सोस, मैं उन्हें ट्रेन के भीतर ही पढ़ सका हूँ।किसी पद्य(poetry) की खासियत यह होती है कि उसे कई बार पढ़ा जा सकता है।हम इन्हें समय के छोटे टुकड़ों में भी पढ़ सकते हैं।परंतु जबतक ट्रेन नहीं आ जाती मैं उतावला सा रहता हूँ।इस समय अगर उजाला होता तो अपने कुछेक शौक अंज़ाम दे सकता था।अब तो रेल परिचालन काफ़ी संयत हो चला है पर अभी भी वो मुझे काफ़ी समय देता है इंतज़ार का।मैं इस शौक के शुरु होने का सारा क्रॆडिट रेल विभाग को देता हूँ।
      
आप कितने भी व्यस्त किस्म के इंसान हो,आप कम से कम समय पर जरूर प्लेट्फ़ार्म पर आ धमकेंगे,और अगर आप मोबाइल पर ज्यादा देर नहीं चिपक सकते और मेरी तरह अक्सर अकेले सफ़र करते हों तो यह शौक पाल सकते हैं।हमारे स्कूल में एक हॉबी हुआ करती थी-बर्ड वाचिंग,जो हमारे पहुँचने पर पर लगाकर उड़ गयी थी।इधर जब नयी दुनिया से नाता हुआ तो इसका दूसरा अभिप्राय भी समझ में आया,पर मैं शालीन बना रहा।इसे आप मेरी खुदफ़हमी कह सकते हैं।हाँ,तो शौक की बात करता हूँ।स्टेशन और सिनेमाहॉल के परिसर दो मस्त जगह हैं(सिनेप्लेक्स की बात नहीं कर रहा हूँ)।इनकी खासियत यह है कि यहाँ समग्र भारत का दर्शन होता है।सारे केबल चैनल का बेतार प्रसारण होता है।आपको रिमोट दबाने की जरुरत नहीं पड़ती,सिर्फ़ गरदन हिलाना होता है।ओह,मुझे अभी भी बहुत दु:ख होता है कि मेरी जिंदगी का बहुत सारा समय सिनेमा परिसर में ब्लैकिये के भाव पढ़ने में गुज़र गया कि अब वो टिकट के दाम कम कर सकता है।वर्ना,मैं कुछ और चैनल देख पाता।पटना में रिज़ेंट हॉल के बाहरी गेट पर खड़ा होकर मूवी टूटने का शो देखना मेरा पसंदीदा चैनल था,नीचे गेट से आते लोग हँसिया-हथौड़ा के प्रतीक बन जाते थे और ऊपर गेट से आनेवाले लोग सामंतवाद का समर्थन करते नज़र आते थे।मैं इस अनेकता में एकता देखकर गौरव महसूस करता था।बच्चन साहब भी याद आ जाते थे-"मेल कराती मधुशाला"।चलो, मधुशाला ना सही चित्रमंदिर ही सही,मधुबाला ना सही कोई और बाला ही सही।
  
पटना स्टेशन भी मस्त है-कोई भी सरकार हो, लगातार हमारे ही रेलमंत्री रहे और क्या बनाया स्टेशन।अपने लिये तो मस्त साइट बन गया,इधर जरा कड़ाई हो गयी है वरना यह बिजली जाने पर यह लड़कों का हवागार और क्रिकेट मैचकास्ट देखने का स्थान भी हुआ करता था।
ट्रेनें आती हैं, जाती हैं।पैसेंजर आयी,लोग उतरे और आप रेलपुल से नज़ारा देखते रहिये।देश के लिये कुछ करने की इच्छा बलवती होने लगती है।हाँ,आप फ़्रस्टेट होकर सारी दुनिया को कोस भी सकते हैं।राजधानी ट्रेन आती है,लोग उतरते हैं ,पर अबकी बॉडी लैंग्वेज कुछ और ही होता है।लगता है कि भारत विकास कर रहा है।रेलपुल सच मायने में वान्टेज(vantage) प्वाइंट है।
  
पर अब अँधेरा हो चला है,भारत में ही हूँ,बल्कि राजधानी में हूँ।पर पता है कि अकेला हूँ ,यहाँ मुझे जानने वाले एक फ़ासले पर हैं।मैं यहाँ इतनी उन्मुक्तता नहीं ले सकता।थकान भी है,सर झुक गया है और पास बैठे कुत्ते को देख रहा हूँ।मेरे बगल में बैठा नौजवान आदमी एक बिस्किट पैकेट लेता है और एक एक बिस्किट कुत्ते को खिला रहा है,जैसे पालतू हो।मैनें उससे उसके काम के बारे में पूछकर परिचय बढ़ाया और बोला-आपको PFA(pepole for animal) ज्वाइन कर लेना चाहिये।एक अपराधबोध हुआ कि स्कूल में जब मैंने ज्वाइन किया था तो खुद मिलने वाले फायदे के विषय में सोच रहा था।उस व्यक्ति ने कहा कि इनकी भी ज़िन्दगी है.......।

अब मेरा एक और चैनल दर्शन जुड़ गया है-भारत के रुप के साथ प्रकृति के रुप को निहारना और अवलोकन करना..........उनकी भी जिंदगी है।

Sunday, August 17, 2008

ख्वाहिश


लम्हा दर लम्हा,हर वक्त,हर मौसम,हर सहर ता-शाम,हर शब एक शख्स जो हमसे बातें करता रहता है।कभी ही उसे सुन पाता हूँ।वो शबनमी चाँदनी में धुलता है,अनवरे-आफ़ताब में निखरता है,नसीमे-बाग संग परवाज़ करता है।वो अक्ल को पासबां नहीं रखता फिर भी बेचैन रहता है।उसे अर्से बाद आज सुनने की कोशिश की और वो एक तहरीर उकेरता चला गया----


हुश्ने-लालाफ़ाम से...
...उम्मीदे-आशनाई
खौफ़ ला देती है...
...तरीके-पारसाई
मंज़िलें बेखुद...
...हासिल है नारसाई
बन गया है हमसे...
...दौरे-जहाँ हरजाई

हो कै़स की जो तुरबत,तो आशिकी मुकम्मल
वहशत, बेचारगी में सारे जहाँ से अव्वल
है चाँद की पेशानी या रोशन रुखे-लैला
है कौन ऐ अज़ल वो हमारी शबे-वस्ल

ता-उम्र गुनहगार को...
...अता की ख्वाहिश
दैर के पहलू में...
...खता की ख्वाहिश
दौरे-मयकशी में...
...वफ़ा की ख्वाहिश
हो सज़दा-ए-सर तो...
...जफ़ा की ख्वाहिश

संग हिलती हैं जहाँ पर, वो बुतकदा हूँ
हर कोशिशें हो नाकाम, एक ऐसी अदा हूँ
निगह के दरम्यां में आओ, कफ़सज़दा हूँ
बशर के दायरे में आओ,तुझपर फ़िदा हूँ




अनवर-light,नूर आफ़ताब-सूरज नसीम-हवा परवाज़-उड़ान
पासबां-पहरेदार तहरीर-लिखावट लालाफ़ाम-फूल की तरह
पारसाई-पंडित नारसाई-disappointment to not getting
कैस-name of majanoo तुरबत-is in which corpse is
placed मुकम्मल-complete अज़ल-मौत वस्ल-मिलन
शब-रात अता-माफ़ी दैर-मंदिर संग-पत्थर कफ़स-कैद




इस नज़्म में एक चित्र उकेरने की कोशिश की है।हमेशा ये हालात होते हैं कि एक जगह हमारी उम्मीद का सागर पसर जाता है और कहीं वो बोझ बन जाता है।ऐसी चीजें जो आँखों से दिखती है,कानों से सुनाई पड़ती हैं-हमारी उम्मीद बन जाती है।पर साथ ही परम्परा,संस्कृति के सुझाये रास्ते जिन्हें हम समझ नहीं पाते,समझते हैं तो उसे मानने का साहस नहीं कर पाते,उसे महसूस नहीं कर पाते।बहुत ज्यादा तो वो हमारी संवेदनाओं को छूकर निकल जाता है और हम फिर तटस्थ रह जाते हैं।इन इशारों को कैसे समझे? बेचारगी और प्रार्थना लिए यह नज़्म- "ख्वाहिश"