Monday, August 18, 2008

संस्मरण-जुलाई २००५

अँधेरा हो चला है।उम्मीद करता हूँ कि अब ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा।इंतज़ार कितना अच्छा शब्द है?पर इस दुनिया कि यही फ़ितरत है-यहाँ कुछ भी एक सा नहीं रहता,शब्द भी नहीं।देश,काल,परिस्थितिवश सबकुछ बदलता रहता है।आशिकी में इंतज़ार भी प्यारा हो जाता है।मुझे तो आठवीं कक्षा में ’इंतज़ार’ शब्द से प्यार हो गया क्योंकि यह एक शायरी में पसंद आ गया।अब जब भी यह शब्द सामने आता है,वो लाइन खुद ही होठों पर आ जाती है- "कहीं आके मिटा ना दे वो इंतज़ार का लुत्फ़।कहीं कबूल ना हो जाये आज इल्तिज़ा मेरी॥"

     
पर यह कोई सुखद इंतज़ार नहीं था।संभवत: पहली बार मैं दिल्ली स्टेशन पर अकेला था और शाम ढ़लने के बाद ट्रेन आने का इंतज़ार कर रहा था। वक्त के ऐसे फ़ासले अमूमन किसी नोवेल या मैगजीन के साथ काटे जाते हैं।मैंने भी यह तरीका आजमाया करता था-मेरी लगभग शायरी की किताबें किसी ट्रेन के सफ़र में ही खरीदी हुई हैं।पर अफ़सोस, मैं उन्हें ट्रेन के भीतर ही पढ़ सका हूँ।किसी पद्य(poetry) की खासियत यह होती है कि उसे कई बार पढ़ा जा सकता है।हम इन्हें समय के छोटे टुकड़ों में भी पढ़ सकते हैं।परंतु जबतक ट्रेन नहीं आ जाती मैं उतावला सा रहता हूँ।इस समय अगर उजाला होता तो अपने कुछेक शौक अंज़ाम दे सकता था।अब तो रेल परिचालन काफ़ी संयत हो चला है पर अभी भी वो मुझे काफ़ी समय देता है इंतज़ार का।मैं इस शौक के शुरु होने का सारा क्रॆडिट रेल विभाग को देता हूँ।
      
आप कितने भी व्यस्त किस्म के इंसान हो,आप कम से कम समय पर जरूर प्लेट्फ़ार्म पर आ धमकेंगे,और अगर आप मोबाइल पर ज्यादा देर नहीं चिपक सकते और मेरी तरह अक्सर अकेले सफ़र करते हों तो यह शौक पाल सकते हैं।हमारे स्कूल में एक हॉबी हुआ करती थी-बर्ड वाचिंग,जो हमारे पहुँचने पर पर लगाकर उड़ गयी थी।इधर जब नयी दुनिया से नाता हुआ तो इसका दूसरा अभिप्राय भी समझ में आया,पर मैं शालीन बना रहा।इसे आप मेरी खुदफ़हमी कह सकते हैं।हाँ,तो शौक की बात करता हूँ।स्टेशन और सिनेमाहॉल के परिसर दो मस्त जगह हैं(सिनेप्लेक्स की बात नहीं कर रहा हूँ)।इनकी खासियत यह है कि यहाँ समग्र भारत का दर्शन होता है।सारे केबल चैनल का बेतार प्रसारण होता है।आपको रिमोट दबाने की जरुरत नहीं पड़ती,सिर्फ़ गरदन हिलाना होता है।ओह,मुझे अभी भी बहुत दु:ख होता है कि मेरी जिंदगी का बहुत सारा समय सिनेमा परिसर में ब्लैकिये के भाव पढ़ने में गुज़र गया कि अब वो टिकट के दाम कम कर सकता है।वर्ना,मैं कुछ और चैनल देख पाता।पटना में रिज़ेंट हॉल के बाहरी गेट पर खड़ा होकर मूवी टूटने का शो देखना मेरा पसंदीदा चैनल था,नीचे गेट से आते लोग हँसिया-हथौड़ा के प्रतीक बन जाते थे और ऊपर गेट से आनेवाले लोग सामंतवाद का समर्थन करते नज़र आते थे।मैं इस अनेकता में एकता देखकर गौरव महसूस करता था।बच्चन साहब भी याद आ जाते थे-"मेल कराती मधुशाला"।चलो, मधुशाला ना सही चित्रमंदिर ही सही,मधुबाला ना सही कोई और बाला ही सही।
  
पटना स्टेशन भी मस्त है-कोई भी सरकार हो, लगातार हमारे ही रेलमंत्री रहे और क्या बनाया स्टेशन।अपने लिये तो मस्त साइट बन गया,इधर जरा कड़ाई हो गयी है वरना यह बिजली जाने पर यह लड़कों का हवागार और क्रिकेट मैचकास्ट देखने का स्थान भी हुआ करता था।
ट्रेनें आती हैं, जाती हैं।पैसेंजर आयी,लोग उतरे और आप रेलपुल से नज़ारा देखते रहिये।देश के लिये कुछ करने की इच्छा बलवती होने लगती है।हाँ,आप फ़्रस्टेट होकर सारी दुनिया को कोस भी सकते हैं।राजधानी ट्रेन आती है,लोग उतरते हैं ,पर अबकी बॉडी लैंग्वेज कुछ और ही होता है।लगता है कि भारत विकास कर रहा है।रेलपुल सच मायने में वान्टेज(vantage) प्वाइंट है।
  
पर अब अँधेरा हो चला है,भारत में ही हूँ,बल्कि राजधानी में हूँ।पर पता है कि अकेला हूँ ,यहाँ मुझे जानने वाले एक फ़ासले पर हैं।मैं यहाँ इतनी उन्मुक्तता नहीं ले सकता।थकान भी है,सर झुक गया है और पास बैठे कुत्ते को देख रहा हूँ।मेरे बगल में बैठा नौजवान आदमी एक बिस्किट पैकेट लेता है और एक एक बिस्किट कुत्ते को खिला रहा है,जैसे पालतू हो।मैनें उससे उसके काम के बारे में पूछकर परिचय बढ़ाया और बोला-आपको PFA(pepole for animal) ज्वाइन कर लेना चाहिये।एक अपराधबोध हुआ कि स्कूल में जब मैंने ज्वाइन किया था तो खुद मिलने वाले फायदे के विषय में सोच रहा था।उस व्यक्ति ने कहा कि इनकी भी ज़िन्दगी है.......।

अब मेरा एक और चैनल दर्शन जुड़ गया है-भारत के रुप के साथ प्रकृति के रुप को निहारना और अवलोकन करना..........उनकी भी जिंदगी है।

2 comments:

Anonymous said...

pranaam baba,
aapka sansmaran padh kar bahut accha laga,
jab se hamare chatrawaas k sadan-adhikari k saath jhadap hui hai, tab se mann vichlit tha,,
ab akasmaat hi achha achha lag anubhav kar raha hu,

oji baba tussi to great haige ;)

Yayaver said...

ek achha sansmaran,kuch bhule hue ko yaad karna,purane smriyon mein kho jana,yehi jeevan hai.