Wednesday, October 31, 2007

जहाँ दिल को हो सुकूं..वो ठिकाना ना मिला (नज़्म)

जहाँ दिल को हो सुकूं..वो ठिकाना ना मिला
यादों से मुझे कभी...छुटकारा ना मिला
अब्र बरसा था अभी आँगन में मेरे
आतिश से भरे दिल को...सहारा ना मिला

हमारे रुबरू होकर कभी गया था वो
ता हश्र फिर कभी वो..शरारा ना मिला
क्या शिकवा करें तुझसे ऐ जिंदगी,पर
ऐसा कोई जिंदगी का मारा ना मिला

दिल जलना और खूं होना ही शोब नहीं
कुछ सवाल हैं जिनका..इशारा ना मिला
अज़ल ले जायेगी नयी डगर..तो देखते हैं
पर क्या पता गर वहाँ भी..गुजारा ना मिला

Tuesday, October 30, 2007

हँस लो,रो लो,कुछ जी को बहला लो


हँस लो,रो लो,कुछ जी को बहला लो
जब मुख्तसर है शब...तो दिल को जला लो
क़यामत क्या खौफ़ लाएगी अब हस्ती में
सर‌अंजाम है मालूम...कुछ मुस्कुरा लो

यार होता है हमनज़र तो दिल खो जाता है
अब वो गया है आखिर...कुछ दर्द उठा लो
कोई आकर गया है इस वीराने में अभी
निशां गर ना मिले...तो आहट ही चुरा लो

तौबा है मुझको मय से मयकशी से नहीं
चाहो तो सरे-बज़्म...बुलाकर पिला लो
ये मेरी ज़िंदगी भी अजीब सी दास्तां है
कोई हासिल नहीं है फिर भी...हर रंग को पा लो

कभी हँसते हमें भी जहाँ ने देखा था
आकर मेरी पुरानी...तस्वीर का बयां लो
कुछ बात सुन लो मेरी, कुछ मुझे भी सुना लो
कुछ किस्सा आज कह दो...कुछ मेरी भी दुआ लो

Monday, October 29, 2007

कुंठा में पनपी हुई एक कविता--


मेज़ पर बिखरे हुए कागज़
कागज़ों से खेल रहा हूँ
धीरे-धीरे,हल्के हाथों से
इन्हें ऊँगलियों से फड़फडा़कर
जैसे नोटों का बंडल हो
सहला रहा हूँ
जैसे कोई पुराना दर्द ना जी उठे...

...चोट खायी ये शाम
कमरे में उतरता रोता अँधेरा
सब धुँधला है
सामने का वक़्त नहीं दिखता
इस धुन्ध को उड़ाना चाहता हूँ
सिगरेट के धुएँ में...

...दस्तक-कुछ पुरानी यादों का
और एक हल्की मुस्कुराहट
बेहूदा हो गये होठ
अब खुद पर ही हँस रहा हूँ
कोई बेपर परिंदा जैसे
परवाज़ को सोच रहा हो...

...सड़क से आती आवाज़
कमरे में घुट जाती है
अपनी धड़कन नहीं सुन पा रहा
पर सीने पर कुछ ताल है
मुझे बोध कराता हुआ
मेरे अस्तित्व का....



Thursday, October 11, 2007

कौन बसा इन आँखों मे

वक्त है सहमा, वस्ल है सहमा
कोई दिखा ना राहों में
दिन भी है डूबा, दिल भी है डूबा
तन्हा सफ़र है ख्वाबों में
ख्वाब सहर का,खवाब सहर तक
कौन बसा इन आँखों में
बात फँसी है,बात जमी है
कैसी है उलझन रातों में
जलती सबा है, चुभती सबा है
कुछ तो फँसा है साँसों में
प्यासी है हसरत,लम्बी है फ़ुरकत
अब तो मिलो बरसातों में


Sunday, October 7, 2007

तेरी बात चल गयी

संसार में सबकुछ क्षणभंगुर है,कभी-कभी हर जगह और हर पल यह अहसास होता है।
बज़्म में बैठे तो जाम चला
और साकी तेरी बात चल गयी

साकी तेरा दीदार भी तो पल भर का ही है जैसे उनके दीदार को तरस गये।
तन्हा राहों पर हम थे तन्हा
सोचा तो तेरी बात चल गयी
अकेले सफ़र पर चल निकला हूँ और तेरी याद आ गयी है।
शमां खामोश जलती थी
बुझी जो तेरी बात चल गयी

जैसे शमां ने भी कुछ देर जलकर साथ तो दिया पर वो भी साथ छोड़ गयी।
तश्नगी में बहर तक जा पहुँचे
मिटी न प्यास तेरी बात चल गयी

ऐसे में किसी शख्स को क्या पता कि कहाँ जाये?बेचारा प्यास लेकर समंदर के पास चला गया।
दिन डूबा और कुछ ना मिला
हुई है रात तेरी बात चल गयी
दिनभर कुछ-कुछ करते रहे पर इसका क्या हासिल निकला?यहाँ भी तुम याद आने लगे।
गुंचो में अटकी थी शबनम
हुई फ़नां तेरी बात चल गयी

शबनम ने भी फूल का साथ छोड़ दिया।
जमीं पर बिखरे थे कुछ पत्ते
हुये कदमत़र तेरी बात चल गयी
और जमीन पर बिखरे हुये पत्ते लोगों के कदमों के नीचे आते गये,उन्हें देखता रहा और सोचता रहा।

पुन:श्च---
बज़्म में बैठे तो जाम चला
और साकी तेरी बात चल गयी
तन्हा राहों पर हम थे तन्हा
सोचा तो तेरी बात चल गयी
शमां खामोश जलती थी
बुझी जो तेरी बात चल गयी
तश्नगी में बहर तक जा पहुँचे
मिटी न प्यास तेरी बात चल गयी
दिन डूबा और कुछ ना मिला
हुई है रात तेरी बात चल गयी
गुंचो में अटकी थी शबनम
हुई फ़नां तेरी बात चल गयी
जमीं पर बिखरे थे कुछ पत्ते
हुये कदमत़र तेरी बात चल गयी


Friday, October 5, 2007

रहा नहीं जाता

यह एक नज़्म है और अगर आप एकबारगी इसे पढ़ना चाहें तो पृष्ठ पर नीचे उतर जायें।
फ़िक्रे-यार में क्या देखा बदबख्त

गहरी शब है;कोई नज़र नहीं आता

इस ज़ुल्मतकदे में क्या हो हश्र

कोई आसरा नहीं पाता


उनकी फ़िक्र में यह कैसा समय आया है?रात भी इतनी गहरी है कि कुछ देख नहीं पा रहा।इस अँधेरे में ना जाने क्या अन्जाम हो?अब कहाँ आसरा मिले?

खिज़ा में फैली है ये खामोशी
धड़कनें सुन नहीं पाता
सिसकियाँ थमी है बेहाल
अब यूँ रहा नहीं जाता
अंदर बाहर,हर तरफ़ खामोशी ही फैली है।अपनी धड़कन की आवाज़ भी सुन नहीं पाता और सिसकियाँ भी साथ छोड़ चुकी है।इस आलम में कैसे कोई रहे?

गिरिया में तर-बतर रुख है
सबा का निशां नहीं पाता
है वीराना इस दश्त में
कोई आहट भी नहीं पाता

आँसू ढलककर चेहरे पर फैले हैं,हवा भी नहीं बह रही कि इन्हें सुखा डाले।इस जंगल में यह कैसा वीराना है?

देखी थी बेताबी कली की
शबनम से जब टूटा था नाता
कितनी दूर है बैठा वो हमदम
कभी फासला नहीं जाता

शबनम ओढे़ हुये कली कितनी खुश थी पर उसके उड़ते ही वो बेचैन हो उठी।हमारा फासला भी तो नहीं मिटता कि फिर से दीदार हो।

किसे भेजूँ कौन कासिद बने
उनकी कोई खबर नहीं पाता

कभी जो सोचे उनके कूचे को
रास्ता नज़र नहीं आता

बेताबी खबर जानने कि भी है पर कौन खबर लाये?आखिर कौन सी राह उनके दर तक जाती है?
पुन:श्च---
फ़िक्रे-यार में क्या देखा बदबख्त
गहरी शब है;नज़र नहीं आता
इस ज़ुल्मतकदे में क्या हो हश्र
कोई आसरा नहीं पाता
खिज़ा में फैली है ये खामोशी
धड़कनें सुन नहीं पाता
सिसकियाँ थमी है बेहाल
अब यूँ रहा नहीं जाता
गिरिया में तर-बतर रुख है
सबा का निशां नहीं पाता
है वीराना इस दश्त में
कोई आहट भी नहीं पाता
देखी थी बेताबी कली की
शबनम से जब टूटा था नाता
कितनी दूर है बैठा वो हमदम
कभी फासला नहीं जाता
किसे भेजूँ कौन कासिद बने
उनकी कोई खबर नहीं पाता
कभी जो सोचे उनके कूचे को
रास्ता नज़र नहीं आता

Thursday, October 4, 2007

जाने कैसा सफर होगा

गद्य के मुकाबले पद्य विधा पाठक को अपनी खुद की संवेदना की लहरों में डूबने का अवसर ज्यादा देती है।इसके बावजूद मैंने कुछ शब्दों को समझने के खयाल से उन्हें हल्के तौर पर विस्तार दिया है।अगर आपको कोई असुविधा नहीं है तो केवल नज़्म ही पढे़।अर्थ जो कि ना शब्दार्थ है ना ही भावार्थ ,आपकी कल्पना में बाधा डाल सकता है।
थमी है दरिया की शोखी

सामने आ गया बहर होगा
सामने तूफ़ान हो या खामोश तबाही,किसी भी तरह का परिवर्तन हो उसकी आहट पहले ही लगने लगती है।जैसे दरिया जब समंदर में मिलने के पहले खामोश हो जाती है।
गया है कहाँ कासिद
देखते ही किया हज़र होगा
वो कासिद संदेश लेकर गया तो जरूर है पर उसने देखते ही उससे मुँह मोड़ लिया होगा।
छूटा है साथ उनका
जाने कैसा सफर होगा
रास्ते पर हम ही अकेले बचे हैं,अब क्या पता कैसा सफ़र हो?
शब बुझ गयी शमां
तारीक ही स़हर होगा
शमां ने भी रात को बुझकर संकेत दे दिया था कि अब सुबह भी अँधेरा ही घिरा रहेगा।
हुए नाआशना हमसे
अब और भी क़हर होगा
जब आशना थे तब ही मुसीबत थी अब तो ना जाने कैसा कहर बरपे।
बेबस है कै़स सहरा में
ढूँढो़ कोई शज़र होगा
मज़नू(कै़स) तु तो तलाश में रेगिस्तान की खाक छान रहा है,कोई दरख्त(शज़र) देखकर चैन ले लो।
लगता है तड़प-तड़पकर
अपना तो अब बसर होगा
अब इस मोड़ पर क्या सोचा जाए कि ज़िन्दगी कैसे कटेगी?

पुन:श्‍च--
थमी है दरिया की शोखी
सामने आ गया बहर होगा
गया है कहाँ कासिद
देखते ही किया हज़र होगा
छूटा है साथ उनका
जाने कैसा सफर होगा
शब बुझ गयी शमां
तारीक ही स़हर होगा
हुए नाआशना हमसे
अब और भी क़हर होगा
बेबस है कै़स सहरा में
ढूँढो़ कोई शज़र होगा
लगता है तड़प-तड़पकर
अपना तो अब बसर होगा