Friday, October 5, 2007

रहा नहीं जाता

यह एक नज़्म है और अगर आप एकबारगी इसे पढ़ना चाहें तो पृष्ठ पर नीचे उतर जायें।
फ़िक्रे-यार में क्या देखा बदबख्त

गहरी शब है;कोई नज़र नहीं आता

इस ज़ुल्मतकदे में क्या हो हश्र

कोई आसरा नहीं पाता


उनकी फ़िक्र में यह कैसा समय आया है?रात भी इतनी गहरी है कि कुछ देख नहीं पा रहा।इस अँधेरे में ना जाने क्या अन्जाम हो?अब कहाँ आसरा मिले?

खिज़ा में फैली है ये खामोशी
धड़कनें सुन नहीं पाता
सिसकियाँ थमी है बेहाल
अब यूँ रहा नहीं जाता
अंदर बाहर,हर तरफ़ खामोशी ही फैली है।अपनी धड़कन की आवाज़ भी सुन नहीं पाता और सिसकियाँ भी साथ छोड़ चुकी है।इस आलम में कैसे कोई रहे?

गिरिया में तर-बतर रुख है
सबा का निशां नहीं पाता
है वीराना इस दश्त में
कोई आहट भी नहीं पाता

आँसू ढलककर चेहरे पर फैले हैं,हवा भी नहीं बह रही कि इन्हें सुखा डाले।इस जंगल में यह कैसा वीराना है?

देखी थी बेताबी कली की
शबनम से जब टूटा था नाता
कितनी दूर है बैठा वो हमदम
कभी फासला नहीं जाता

शबनम ओढे़ हुये कली कितनी खुश थी पर उसके उड़ते ही वो बेचैन हो उठी।हमारा फासला भी तो नहीं मिटता कि फिर से दीदार हो।

किसे भेजूँ कौन कासिद बने
उनकी कोई खबर नहीं पाता

कभी जो सोचे उनके कूचे को
रास्ता नज़र नहीं आता

बेताबी खबर जानने कि भी है पर कौन खबर लाये?आखिर कौन सी राह उनके दर तक जाती है?
पुन:श्च---
फ़िक्रे-यार में क्या देखा बदबख्त
गहरी शब है;नज़र नहीं आता
इस ज़ुल्मतकदे में क्या हो हश्र
कोई आसरा नहीं पाता
खिज़ा में फैली है ये खामोशी
धड़कनें सुन नहीं पाता
सिसकियाँ थमी है बेहाल
अब यूँ रहा नहीं जाता
गिरिया में तर-बतर रुख है
सबा का निशां नहीं पाता
है वीराना इस दश्त में
कोई आहट भी नहीं पाता
देखी थी बेताबी कली की
शबनम से जब टूटा था नाता
कितनी दूर है बैठा वो हमदम
कभी फासला नहीं जाता
किसे भेजूँ कौन कासिद बने
उनकी कोई खबर नहीं पाता
कभी जो सोचे उनके कूचे को
रास्ता नज़र नहीं आता

2 comments:

Anonymous said...

"कभी जो सोचे उनके कूचे को
रास्ता नज़र नहीं आता"


जहाँ चाह , वहाँ राह मिल ही जाती है.

मीनाक्षी

Udan Tashtari said...

अब बेहतरीन हो गया. आभार, आपने हमारी बात रखी.