मेज़ पर बिखरे हुए कागज़
कागज़ों से खेल रहा हूँ
धीरे-धीरे,हल्के हाथों से
इन्हें ऊँगलियों से फड़फडा़कर
जैसे नोटों का बंडल हो
सहला रहा हूँ
जैसे कोई पुराना दर्द ना जी उठे...
...चोट खायी ये शाम
कमरे में उतरता रोता अँधेरा
सब धुँधला है
सामने का वक़्त नहीं दिखता
इस धुन्ध को उड़ाना चाहता हूँ
सिगरेट के धुएँ में...
...दस्तक-कुछ पुरानी यादों का
और एक हल्की मुस्कुराहट
बेहूदा हो गये होठ
अब खुद पर ही हँस रहा हूँ
कोई बेपर परिंदा जैसे
परवाज़ को सोच रहा हो...
...सड़क से आती आवाज़
कमरे में घुट जाती है
अपनी धड़कन नहीं सुन पा रहा
पर सीने पर कुछ ताल है
मुझे बोध कराता हुआ
मेरे अस्तित्व का....
कागज़ों से खेल रहा हूँ
धीरे-धीरे,हल्के हाथों से
इन्हें ऊँगलियों से फड़फडा़कर
जैसे नोटों का बंडल हो
सहला रहा हूँ
जैसे कोई पुराना दर्द ना जी उठे...
...चोट खायी ये शाम
कमरे में उतरता रोता अँधेरा
सब धुँधला है
सामने का वक़्त नहीं दिखता
इस धुन्ध को उड़ाना चाहता हूँ
सिगरेट के धुएँ में...
...दस्तक-कुछ पुरानी यादों का
और एक हल्की मुस्कुराहट
बेहूदा हो गये होठ
अब खुद पर ही हँस रहा हूँ
कोई बेपर परिंदा जैसे
परवाज़ को सोच रहा हो...
...सड़क से आती आवाज़
कमरे में घुट जाती है
अपनी धड़कन नहीं सुन पा रहा
पर सीने पर कुछ ताल है
मुझे बोध कराता हुआ
मेरे अस्तित्व का....
4 comments:
कुंठा से कभी कविता नहीं होती है बलिक दर्द से पैदा होती है। आप अपने दर्द को कविता में बहने दीजिये, बाकी काम आपकी रचना करेगी।
दीपक भारतदीप
Nice Blog..............
great imagination, quality selection of words...completely striking
great imagination, quality selection of words...completely striking
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