Monday, March 10, 2008

मैं बिहारी

हालांकि मैं सामयिक विषयों पर लिखने की कम ही सोचता हूँ।बातें मन में रहती हैं,परंतु मुझे लगता है कि बहुत सारे लोग हैं जो ज्यादा प्रभावी तरीके से मुद्दों को उठा रहें हैं और इस आग को जलाये रख रहे हैं। अभी अभी विश्व दीपक "तन्हा" जी की कविता -- एक बिहारी ,सब पर भारी पढ़ी।वस्तुत: सहनशील समाज में इस तरह की तुकबंदी नहीं बनती लेकिन -"एक बिहारी सौ बीमारी” के जवाब में यह ज्यादा विद्रोही भी नहीं है।


बिहार को लेकर अन्य लोगों के अंदर(सभी नहीं) एक पूर्वाग्रह है, और कभी कभी उनकी धारणा किन्हीं कारणों से पुष्ट भी होती रहती है।इस तरह यह विष फैलता जाता है।इस कविता को पढ़ने के बाद मुझे भी कुछ वाकये याद आ रहे हैं जब इस तरह के मुद्दे उठे थे।


बचपन से ही बिहार में रहना हुआ था।जब स्कूल में था तभी झारखंड राज्य बना।इंटरमीडियट के लिये जमशेदपुर गया।एक दफ़े सब्जी बाजार में हम लोगों का मोल भाव ज्यादा हो गया।हम स्टुडेंट थे और हिसाब किताब कुछ ज्यादा कर जाते थे।हम सही थे पर सब्जी वाला खीझ गया और कहा कि बिहार से आये हो।वैसे वह भी बिहार का ही था और कुछेक सालों से यहाँ था।उसे अबतक बिहारी होने कि जितनी भी कुंठायें थी,वो सब हमपर निकल आयीं।ये कमोबेश ऐसी ही घटना है कि आप अपने कपड़े बदलकर पुराने कपड़ो वाले पर हँसते हो।मुझे कभी कभी इन लोगों की मानसिक पीड़ा को देखकर इनकी बेचारगी दिखती है।पर यह कुंठा भी इसी तरह नहीं आ जाती,बल्कि इसके पीछे भी कहानियाँ जुड़ी होती हैं और हर लोग अपनी तरह से इन परिस्थितियों में अपनी प्रतिक्रिया देते हैं।


इसी तरह पटना में आनंद सर (जो iit jee के लिये supar 30 चला रहे थे) के पास math coaching के लिये गया।उनका क्लास भी बहुत आनंदमय हुआ करता था और result भी अच्छा होता था।लड़के उनके अंधभक्त हुआ करते थे(गौर करें आज के परिवेश में गुरु -शिष्य के बीच यह बिल्कुल विपरीत घटना है)।एक बार उन्होंने कहा कि बाहर में लोग बिहारी को क्या क्या समझते हैं पर मुझे तो सबसे सीधा-सादा और भोला-भाला बिहारी ही लगता है।फिर उन्होंने कहा कि यहाँ ज्यादा कृषि परिवार रहते हैं,उद्योग का अभाव है।अगर कोई आगे बढ़ना चाहता है तो सबसे आसान जरिया पढ़ाई ही है या ज्यादा गरीब लोग मजदूरी के लिये जाते हैं।लोग वैसी पृष्ठभूमि से आते हैं और हर जगह छले जाते है।उदाहरण के तौर पर अगर कहीं पर सारा syllabus खत्म नहीं हुआ तो दूसरे लोग पैसा वापस माँगेंगे या कुछ कारवाई करेंगे पर बिहारी बेचारा चुपचाप चला जायेगा।



मैं भी jee की तैयारी के लिये कोटा गया।एक तरह से अगर छोटी-छोटी यात्राओं और झारखंड को छोड़ दिया जाये तो अलग राज्य में रहने का पहला अनुभव था।यहाँ एक बिहारी के रूप में मेरी पहचान हो सकती थी।क्लासरुम में मेरे एक मित्र ने मुझे बिहारी से संबोधित किया,कोई बात नहीं-मुझे इसकी आशंका थी कि ऐसा हो सकता है,और इसमें बुरा ही क्या था।पर जब वो बेवजह जब तब मुझे बिहारी बिहारी संबोधित करने लगा तो पहली बार मुझे आभास हुआ कि बिहारी सुनकर क्या क्या कुंठाएँ पैदा हो सकती है।हालांकि,हम हमेशा से अच्छे मित्र रहे और हैं,पर उस समय उसका चुटकी लेना मुझे कुछ अहसास करा गया।इसके पहले जब भी दोस्तों के बीच ऐसी चर्चा चली तो हम इस बात पर एकमत होते थे कि बिहारी शब्द अगर हमारे लिये कोई उपयोग करे तो इसमे बुरा क्या है-क्या तमिल,पंजाबी,बंगाली...... आदि संबोधन भी तो लोग उपयोग में लाते हैं।हम इस निष्कर्ष पर आ जाते कि कहीं ना कहीं हमारे अंदर भी अतिसंवेदनशीलता है।


गंगाजल या अपहरण फ़िल्म करने के बाद अजय देवगनजी ने भी कहीं कहा था कि अब मैं समझता हूं कि बिहार के लोग इतने तैश में क्यों रहते हैं।अभी कुछ महीने पहले मेरे स्कूल के सीनियर विकास जी, जो अभी iit मुंबई में हैं;उन्होंने अपने ब्लाग (एक ठो बिहारी था)पर अपना वाकया पेश किया कि क्रेडिट कार्ड के लिये बिहार का पता भरने पर उन्हें कार्ड मिला ही नहीं।पहले तो उन्हें कुछ दूसरी गड़बड़ी लगी पर बाद में असली कारण पता चला।


मुझे लगता है कि जब उच्च संस्थानों में भी ऐसा अनुभव हो रहा है तब कोई भी इस कटु अनुभव से बचा नहीं रह पाया होगा।अब हर तरह के लोग अपने तरीके से मामले को लेते हैं।एक रैगिंग का किस्सा सुना था कि बिहारी कहने पर रात में फ्रेशर ने सीनियर की कंबल परेड कर दी(बिहारी सीनियर भी इस कंबल-परेड के मूक समर्थक थे)।


अभी तक ऐसी परिस्थितियों में कम ही रहा हूँ ,जहाँ मुझे इस तरह का कोई और भी कटु अनुभव हो।पर अभी बहुत समय है और दुनिया भी काफी बड़ी और रंगबिरंगी है-क्या पता कब कैसी परिस्थिति से गुज़रना पड़े।कभी कभी परिस्थितियाँ संघातक भी हो सकती है।अत: मानसिक स्तर पर अपने आप को तैयार कर लेता हूँ कि स्थिर रह सकूँ।



हमारे एक भाई ने बाला साहब को धन्यवाद भी दिया जो मुझे भी सही लगा-- शुक्रिया बाला साहब और एक विचार राज साहब ठाकरे जी के लिये यहाँ भी,लिंक दे रहा हूँ- राज ठाकरे की चिंतायें जायज हैं

Wednesday, March 5, 2008

अपनी खोज


लिखूँ क्या फ़लक को देखकर हैरानगी से मैं
मस्ती में शोख किरणॊं की रवानगी से मैं
जब उम्र की इस दहलीज पर शोर की दरक़ार है
थकी सी आँख में डूबी हुई वीरानगी से मैं

एक शख्स हूँ दैरो-हरम के बीच में आकर
इस मोड़ पर आकर बँटा एक रास्ते सा मैं
कहीं दहलीज़ इबादत की,कहीं पसरी है शोखी
गुज़रे और आते वक्त के फ़ासले सा मैं

इक मर्तबा है नगमा-ए-खुशी,एक मर्तबा है गम
कभी रोता हूँ और कभी हँसता सा हूँ मैं
कभी हसरते-दीदार है,कभी  खूने-तमन्ना
अपने ही कफ़स में फँसा मकड़े सा हूँ मैं