लिखूँ क्या फ़लक को देखकर हैरानगी से मैं
मस्ती में शोख किरणॊं की रवानगी से मैं
जब उम्र की इस दहलीज पर शोर की दरक़ार है
थकी सी आँख में डूबी हुई वीरानगी से मैं
एक शख्स हूँ दैरो-हरम के बीच में आकर
इस मोड़ पर आकर बँटा एक रास्ते सा मैं
कहीं दहलीज़ इबादत की,कहीं पसरी है शोखी
गुज़रे और आते वक्त के फ़ासले सा मैं
इक मर्तबा है नगमा-ए-खुशी,एक मर्तबा है गम
कभी रोता हूँ और कभी हँसता सा हूँ मैं
कभी हसरते-दीदार है,कभी खूने-तमन्ना
अपने ही कफ़स में फँसा मकड़े सा हूँ मैं
Wednesday, March 5, 2008
अपनी खोज
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