Wednesday, March 5, 2008

अपनी खोज


लिखूँ क्या फ़लक को देखकर हैरानगी से मैं
मस्ती में शोख किरणॊं की रवानगी से मैं
जब उम्र की इस दहलीज पर शोर की दरक़ार है
थकी सी आँख में डूबी हुई वीरानगी से मैं

एक शख्स हूँ दैरो-हरम के बीच में आकर
इस मोड़ पर आकर बँटा एक रास्ते सा मैं
कहीं दहलीज़ इबादत की,कहीं पसरी है शोखी
गुज़रे और आते वक्त के फ़ासले सा मैं

इक मर्तबा है नगमा-ए-खुशी,एक मर्तबा है गम
कभी रोता हूँ और कभी हँसता सा हूँ मैं
कभी हसरते-दीदार है,कभी  खूने-तमन्ना
अपने ही कफ़स में फँसा मकड़े सा हूँ मैं


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