Sunday, August 17, 2008

ख्वाहिश


लम्हा दर लम्हा,हर वक्त,हर मौसम,हर सहर ता-शाम,हर शब एक शख्स जो हमसे बातें करता रहता है।कभी ही उसे सुन पाता हूँ।वो शबनमी चाँदनी में धुलता है,अनवरे-आफ़ताब में निखरता है,नसीमे-बाग संग परवाज़ करता है।वो अक्ल को पासबां नहीं रखता फिर भी बेचैन रहता है।उसे अर्से बाद आज सुनने की कोशिश की और वो एक तहरीर उकेरता चला गया----


हुश्ने-लालाफ़ाम से...
...उम्मीदे-आशनाई
खौफ़ ला देती है...
...तरीके-पारसाई
मंज़िलें बेखुद...
...हासिल है नारसाई
बन गया है हमसे...
...दौरे-जहाँ हरजाई

हो कै़स की जो तुरबत,तो आशिकी मुकम्मल
वहशत, बेचारगी में सारे जहाँ से अव्वल
है चाँद की पेशानी या रोशन रुखे-लैला
है कौन ऐ अज़ल वो हमारी शबे-वस्ल

ता-उम्र गुनहगार को...
...अता की ख्वाहिश
दैर के पहलू में...
...खता की ख्वाहिश
दौरे-मयकशी में...
...वफ़ा की ख्वाहिश
हो सज़दा-ए-सर तो...
...जफ़ा की ख्वाहिश

संग हिलती हैं जहाँ पर, वो बुतकदा हूँ
हर कोशिशें हो नाकाम, एक ऐसी अदा हूँ
निगह के दरम्यां में आओ, कफ़सज़दा हूँ
बशर के दायरे में आओ,तुझपर फ़िदा हूँ




अनवर-light,नूर आफ़ताब-सूरज नसीम-हवा परवाज़-उड़ान
पासबां-पहरेदार तहरीर-लिखावट लालाफ़ाम-फूल की तरह
पारसाई-पंडित नारसाई-disappointment to not getting
कैस-name of majanoo तुरबत-is in which corpse is
placed मुकम्मल-complete अज़ल-मौत वस्ल-मिलन
शब-रात अता-माफ़ी दैर-मंदिर संग-पत्थर कफ़स-कैद




इस नज़्म में एक चित्र उकेरने की कोशिश की है।हमेशा ये हालात होते हैं कि एक जगह हमारी उम्मीद का सागर पसर जाता है और कहीं वो बोझ बन जाता है।ऐसी चीजें जो आँखों से दिखती है,कानों से सुनाई पड़ती हैं-हमारी उम्मीद बन जाती है।पर साथ ही परम्परा,संस्कृति के सुझाये रास्ते जिन्हें हम समझ नहीं पाते,समझते हैं तो उसे मानने का साहस नहीं कर पाते,उसे महसूस नहीं कर पाते।बहुत ज्यादा तो वो हमारी संवेदनाओं को छूकर निकल जाता है और हम फिर तटस्थ रह जाते हैं।इन इशारों को कैसे समझे? बेचारगी और प्रार्थना लिए यह नज़्म- "ख्वाहिश"

3 comments:

Anwar Qureshi said...

बहुत खूब ..काबिले तारीफ़ लिखा है आप ने ..बहुत शुक्रिया ......

बालकिशन said...

वाह वाह
सुंदर!
अति सुंदर!

Udan Tashtari said...

वाह! बहुत सुन्दर.