Friday, August 24, 2007

तमन्ना


तमन्ना!जाने कितनी सारी हैं,कुछ पूरी होतीं हैं और कुछ खार बनकर चुभती रहती हैं।तमन्ना जो इस दिल से रिसती रहती है।तमन्ना जो हमेशा मचलती रहती है।
(
जगजीत सिंह की एक गज़ल जो अक्सर गूंजती रहती है -तमन्ना फ़िर मचल जाये अगर तुम मिलने जाओ)
पर
मुझे किससे मिलना है-किसी से नहीं,फ़िर भी बेताबियाँ तो हैं ही।
और
जब कुछ ख्वाहिशें पूरी ना हो-ख्वाहिशें जो केवल आनंदधर्मिता के लिये हो,जिनपर हमारा काफ़ी कुछ निर्भर करता हो,फ़कत ख्वाहिश नहीं बल्कि जो जरूरत बन चुकी हो।तो फ़िर ऐसे में किसे कसूरवार ठहरायें,कुछ चीजों के लिये कोई कसूरवार नहीं होता,फ़िर उसी गुमनाम कसूरवार(शायद तकदीर या शायद मैं)के नाम कुछ शिकायत करके कुछ तो हल्का हो लूँ।

सितमगर बने कितना भी जहाँ
तेरे सितम से कब हो मुकाबिल

ज़ुल्मत में भी हो तेरा दीदार
हमारी हर खुशी के तुम हो कातिल

फ़ानी जहाँ में आए हम क्यों
हमारी हसरतों का क्या है हासिल

उम्र गुजरी खूने-तमन्ना में
हुआ हूँ मैं या तुम हो कातिल

कहाँ हम ढूँढें दिल पुरआरज़ू को
बना है आशियां सहरा--साहिल

फ़कत कुछ साँस खार में चुभी है
मेरे अरमानों के तुम हो कातिल


मुकाबिल -तुलना करने के अर्थ में
ज़ुल्मत -अँधेरा

फ़ानी जहाँ -नश्वर संसार

खूने-तमन्ना - इच्छाओं का दमन

दिल पुरआरजू -इच्छाओं से भरा ह्रदय

सहरा-ओ-साहिल - वीराना और किनारा

खार - काँटा


tamanna commentary...

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया प्रस्तुति है।