दीप मेरे दीप्ति तेरी ज्यों सुलगता स्वप्न
तेल है आहों की सिलवट
तेल है आहों की सिलवट
कसमसाती कोई हसरत
दे रहा है कौन आहट
क्या मची है छटपटाहट
साँसों कि है सुगबुगाहट
साँसों कि है सुगबुगाहट
कौन देगा मुझको राहत
ना रुका यह दग्ध हृदय कितना भी किया यत्न
दीप मेरे दीप्ति तेरी ज्यों सुलगता स्वप्न

क्या सोचती आकाशगंगा दृष्टि है मुझपर टिकाए
दीप मेरे दीप्ति तेरी ज्यों सुलगता स्वप्न

क्या सोचती आकाशगंगा दृष्टि है मुझपर टिकाए
देखो कौन डगमगाए
खुद में ही क्यों मुस्कुराए
रात क्यों अपनी जगाए
होठों में क्या बुदबुदाए
अपनी धुन में बढ़ता जाए
ख्वाब आँखों में टिकाए
ख्वाब आँखों में टिकाए
यूँ ही झूँमू ,गीत गाऊं, क्या मिल है रत्न ?
दीप मेरे दीप्ति तेरी ज्यों सुलगता स्वप्न
अब क्या करूं ऎसी ही आवाज अंतर्मन में गूँज रही है ,वही अनुगूँज शब्दों में ढालने कि कोशिश कर रहा हूँ
एक बेचैनी आपसे बाँट रहा हूँ ,कितना सफल हो सका यह प्रश्न शायद प्रासंगिक नहीं है
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3 comments:
deepak and baati have been a prop used by poets cutting across ages. It is the coupling of strange vulnerability with striking perseverance, that makes the flickering flame of a deepak so appealing.
nice post
बहुत बढ़िया प्रयास है, बधाई. लिखते रहें.
कविता अच्छी लगी । आशा है आपका लिखा और भी पढ़ने को मिलेगा ।
घुघूती बासूती
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