कुछ हादसे हुए हैं इधर जिनसे मैं काफ़ी प्रभावित हुआ हूँ । भावनायें जो कहीं हृदय मे गाँठ बनायें रहती हैं ,खुलने पर कफ़ी दर्द दे जाती हैं।एक वही आलम था और मैं घर की छत पर ज़ख्मों को सहला रहा था।
चाँद, फ़िर तुम मुझे घूरते हो!
चाँद, फ़िर तुम मुझे घूरते हो!
अकेली छत पे यूँ ही आ पड़ा हूँ
नक़ाब से आँसू नहीं निकलते हैं
आज नक़ाब उतारने चला हूँ।
सिसकती रुह है, अनजानापन है
हवाएँ भी कुछ कहती हैं मुझसे
हर पल ख़ुद को समझाता हूँ मैं
एक मायूस हँसी हँस जाता हूँ मैं
मुझे परदा नहीं है तुमसे कुछ भी
न जाने क्या-क्या कहा है मैंने तुझसे
सदियों से कहता आ रहा हूँ शायद
तुम इतने शांत से क्यों रहते हो?
तुमने भी कुछ खोया है शायद ।
चाँद, फ़िर तुम मुझे घूरते हो!
चाँद, फ़िर तुम मुझे घूरते हो!
अकेली छत पे यूँ ही आ पड़ा हूँ
नक़ाब से आँसू नहीं निकलते हैं
आज नक़ाब उतारने चला हूँ।
सिसकती रुह है, अनजानापन है
हवाएँ भी कुछ कहती हैं मुझसे
हर पल ख़ुद को समझाता हूँ मैं
एक मायूस हँसी हँस जाता हूँ मैं
मुझे परदा नहीं है तुमसे कुछ भी
न जाने क्या-क्या कहा है मैंने तुझसे
सदियों से कहता आ रहा हूँ शायद
तुम इतने शांत से क्यों रहते हो?
तुमने भी कुछ खोया है शायद ।
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4 comments:
प्रभाकर जी,बढिया रचना है।बधाई।
चाँद, फ़िर तुम मुझे घूरते हो!
अकेली छत पे यूँ ही आ पड़ा हूँ
नक़ाब से आँसू नहीं निकलते हैं
आज नक़ाब उतारने चला हूँ।
Though I can very well convey all this personally to you,but in the form of a comment it would be a lot more encouraging..
This was yet another wonderful piece. Being familiar with your cheerful demeanor,all this "aansu" and "sisakti rooh" stuff appears to be written by someone else..amazing..
रचना अच्छी लगी. लिखते रहें. बधाई.
मैं आपलोगों का आभारी हूँ कि मेरी रचना को आपलोगों द्वारा पसंद किया गया।
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