Saturday, July 28, 2007

दूरियाँ



परीक्षाओं की वजह से इधर २० दिन काफ़ी गर्दिश भरे रहेमेरी पुरानी प्रेषित रचनायें पढकर मेरे एक सहपाठी ने ये आरोप लगाया कि सारी तुम्हारी तरह हैं-बोरिंग और आत्मकेंद्रितकल जब परीक्षाएँ समाप्त हो गयी तो आज कुछ अलग लिखना चाहापर जल्दी ही मुझे आभास हुआ की मैं उसी पुराने अवसाद को यहाँ भी बिखेर रहा हूँखैर,जो भी बन पड़ा है वो एक अभिव्यक़्ति है आप चाहें तो कुछ समय दे दें

तेरे दीदार से हस्ती का गुमां होता है
ऐसा ही हम मस्तों का जहां होता है
तसव्वुर में कभी आते हो तुम तो
बागे-हयात में खुशबू का समां होता है

देखता हूँ मैं बंद करके आँखे
ज़ख्मे-दिल पे तेरा निशां होता है
कब पहुँचेगी तुझतक ये सदा
एक शख्स है जो आहिस्ता फ़नां होता है

आती नहीं है कोई ठंढी आह भी
जब तू कभी मेहरबां होता है
कैसे कहूँ अपने दिल को अपना मैं
तेरे दर्द का या तेरा मकां होता है

टूटती साँसों का छूटा कारवां
अब नहीं हालत ये बयां होता है
फिर लगी है अब मुझे ये हिचकियाँ
ख़्वाब का मंज़र ये वीरां होता है

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2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

प्रभाकर जी, बहुत भावपूर्ण रचना है।पढ कर आनंद आ गया।बधाई\क्या खूब लिखा है-

देखता हूँ मैं बंद करके आँखे
ज़ख्मे-दिल पे तेरा निशां होता है
कब पहुँचेगी तुझतक ये सदा
एक शख्स है जो आहिस्ता फ़नां होता है

aarsee said...

आपके लगातार उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद।