Sunday, July 15, 2007

टुकड़े



[ना जाने कितने टुकड़ों मे हम बँटे होते हैं
कितनी दुनियाँ मे एक साथ जीते हैंवो अंतराल जब हम एक दुनिया से दूसरी दुनिया में विसरित होते हैं ,काफ़ी संघातक बन जाता है जब सीने मे फफोले होंफ़िर भी हमें मुस्कुराना होता है ताकि खुशियाँ लुटा सकें।]




मैं टुकड़ों में बिखरा पड़ा था
खो गये कुछ टुकड़े
मेरे सीने को भारी कर गये
आँखें नम नहीं होने देता मैं
काफ़ी मशक्कत से रोकता हूँ इस उबाल को
मुझे जीना है खुशनुमा लोगों के बीच
मनहूसियत से हर क़दम पर बचते हुए
पर
एक टीस जो अक्सर उभर कर आती है
मेरी हस्ती को सवालों मे फाँस जाती है
न जने कबतक ये दर्द सिमटता रहेगा
मेरा अक्स बनता-बिगड़ता रहेगा

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1 comment:

aarsee said...

धन्यवाद