
प्रसंग कुछ खास नहीं है , कुछ भावनाएँ हैं जो सबके हॄदय तरंगों को झंकृत करती है।मैं कुछ खास नहीं, ना ही ये व्यथा नयी है।फ़िर भी इस अभिव्यक्ति को मेरी नज़र से देखें।
हो कौन तरु की छाया सी मेरे प्रदाह का भार लिए
इस मौन-प्रेम का हार लिए,मधु की शीतल धार लिए
आवरित वदन,शोभित बदन-ये बिखरा बिखरा सा चंदन
छा रहा मधु का जीवन- धन ,मैं भूल गया रुदन-क्रन्दन
किसने छेड़ी ये सुर-लहरी ,अलसाये मेरे चेतना-प्रहरी
खोया मैं मत्त पहाडों में ,निंदिया छाई है जादूभरी
और उसी नीरव उपत्यका में,विस्मृत तुझे मैं ढूँढ़ रहा
ये आँखमिचौली है कैसी ,कब से कारण मैं ढूँढ रहा
हो कौन तरु की छाया सी मेरे प्रदाह का भार लिए
इस मौन-प्रेम का हार लिए,मधु की शीतल धार लिए
आगमन कभी लतिका-कुंज से,कभी लगे बरसने मेघों से
कभी फेनिल लहरों पर आए,कभी आँखों के अश्रुकण से
छलता जाता मैं बारम्बार बिलखा फिर से हृदय-उद्गार
आता-जाता यह कैसा ज्वार,सीने में बिंधा है किसका खार
तारक-कानन में दूर बैठ ,यूँ कौन है मुझसे खेल रही
सुप्त-तरल-चेतना-तरणी,किसके बाणों को झेल रही
हो कौन तरु की छाया सी मेरे प्रदाह का भार लिए
इस मौन-प्रेम का हार लिए,मधु की शीतल धार लिए
tum kaun.mp3 |
2 comments:
बढि़या है। लिखते रहो।डिग्री तो मिल ही जायेगी। बनारस के मजे ले लो।
"किसने छेड़ी ये सुर-लहरी ,अलसाये मेरे चेतना-प्रहरी
खोया मैं मत्त पहाडों में ,निंदिया छाई है जादूभरी "
सशक्त रचना. लिखते रहें. -- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
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