Sunday, May 6, 2007

बेबस

अक्टूबर २००५ मे कोटा में ही लिखी थी,कभी कभी तलबंडी चौराहे पर घूमते- घूमते भी लिखने का मन हो जाता था




तुझे देखा जो हुई जान बेबस
मचले दिल की हर आह बेबस

उलझे जुल्फों मे जाकर हम ऐसे
हुई है सुबह और हर शाम बेबस

चमकते चहरे का नज़ारा किया तो
नज़रें खोयी हैं हुई साँस बेबस

मुस्कुराते लबों ने मचा दी हलचल
तुझे पाने की खोयी आस बेबस

गिला करते हैं तुझसे तड़पाने का
अटक जाती है आती बात बेबस

लिखे शिकवा कैसे तेरी बेरुखी का
मची खामोश हलचल हाथ बेबस

bebas.mp3

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