Sunday, May 6, 2007

उलझे लम्हे

कोटा (राजस्थान) में कोचिंग क्लास के दौरान जब सवालात पर बहस होती थी , उस दौरान मुझे ये सब लिखना ज्यादा सही लगता था ! दोस्तो के संसर्ग मे मूड भी बन जाता था ,वैसे मैं काफी रुखा बन्दा हूँ ! ये सितम्बर २००५ मे लिखा था !







फरेब दिल का किताबों में पढा था
अफसाना-ए-कातिल मे कुछ तो छुपा था

निगाहें खिंचती सी और बेबाक अदायें
थी तेरी सादगी या कोई सैय्याद छुपा था

सदायें खो रही हैं, चमन वो दूर हो गए
यादों की आमादो-शुद पर लम्हे उलझ गए

एक सीधी राह पर वीराने ढल गए
ढल के वो मेरे दिल में उतर गए

लम्हा बेबस माँगता है हश्र अपना
बतायें तुझे क्या , हम हैं भूले नाम अपना

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